Book Title: Dhammapada 08
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 368
________________ ध्यान की खेती संतोष की भूमि में पदचिह्न नहीं छटते। इसलिए तुम अगर चाहो कि हम बुद्ध के पदचिह्नों पर चलकर पहुंच जाएंगे, तो तुम गलती में हो। आकाश में पक्षी चलते हैं, उड़ते हैं, कोई पदचिह्न नहीं छूटते। इसलिए उनके पीछे कोई उनके पदचिह्नों पर चलकर कहीं जा नहीं सकता। बुद्ध बार-बार कहते थे, अप्प दीपो भव, अपने दीए खुद बनो, किसी के पीछे चलकर कोई कभी नहीं पहुंचता, क्योंकि यहां चिह्न बनते ही नहीं। यहां चिह्न निर्मित ही नहीं होते। तुम अनुगमन कर ही नहीं सकते। तुम अनुकरण कर ही नहीं सकते। तुम किसी की छाया बनना चाहो तो भूल हो जाएगी। फिर तुम आत्मा न बन सकोगे। 'आकाश में पथ नहीं होता...।' आकासे च पदं नत्थि समणो नत्थि बाहिरे। .. उसने पूछा कि बाहर में श्रमण होता है या नहीं? इसका बौद्धों ने जो अब तक अर्थ किया है, वह एकदम गलत है। बौद्ध इसका अर्थ करते हैं कि उसने पूछा कि भगवान के संघ के बाहर कोई आदमी समाधि को उपलब्ध होता है ? श्रमण होता है? और बौद्ध-शायद उसने यह पूछा भी हो, हम उसको क्षमा कर सकते हैं, वह अज्ञानी आदमी, हो सकता है पूछा हो उसने कि आपके संघ के बाहर कोई ज्ञान को उपलब्ध होता है? आपके संघ के बाहर, आपके भिक्षुओं के बाहर कोई समाधि को उपलब्ध होता है ? हो सकता है पूछने वाले ने यही पूछा हो। लेकिन बुद्ध तो इस तरह का उत्तर नहीं दे सकते हैं कि बाहर में (बुद्ध-शासन से बाहर) श्रमण नहीं होता। यह बात गलत है। यह तो बुद्ध कतई नहीं कह सकते। फिर बुद्ध का क्या अर्थ होगा? सूत्र सीधा-साफ है, उसके अर्थ भी खूब बिगाड़े गए हैं। आकासे च पदं नत्थि। 'आकाश में पदचिह्न नहीं बनते।' समणो नत्थि बाहिरे। 'बाहर श्रमण नहीं होता।' अब इसका अर्थ जो मैं करता हूं वह यह है कि जो बहिर्मुखी है, वह श्रमण नहीं होता। जो बाहर दौड़ रहा है, बाहर की तरफ जा रहा है, वह कभी ज्ञान को उपलब्ध नहीं होता। जिसकी यात्रा अंतर्मुखी है, वही ज्ञान को उपलब्ध होता है। 355


Page Navigation
1 ... 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378