Book Title: Dhammapada 08
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 341
________________ एस धम्मो सनंतनो पत्थर, चांद-तारे, सभी कुछ असाधारण है। और अगर सभी कुछ असाधारण है, तो फिर साधारण-असाधारण का भेद ही क्या! जिन्होंने जाना है, उन्होंने कहा है, न तो कोई साधारण है, न कोई असाधारण। अस्तित्व एक है, इसलिए कौन साधारण होगा, कौन असाधारण होगा। तो या तो कहो, सभी साधारण हैं, तब भी सच; या कहो, सभी असाधारण हैं, तब भी सच; लेकिन एक को साधारण और एक को असाधारण करने में भूल हो जाती है। कोटियां बांटी कि भूल हो जाती है, वर्ग बांटे कि भूल हो जाती है, वर्ण बनाए कि भूल हो जाती है। कहा कि ब्राह्मण-शूद्र, भूल हो गयी; कहा कि ऊंचा-नीचा, भूल हो गयी; कहा कि शुभ-अशुभ, भूल हो गयी। जहां तक भेद है और जहां तक द्वंद्व है, वहां तक संसार है ___तो एक आदमी कहता है कि देखो, मैं कितना बुद्धिमान; और एक आदमी कहता है, देखो मेरे पास कितना धन; और एक आदमी कहता है, देखो मेरे पुण्य, मैंने कितना पुण्य किया-इनमें कोई फर्क है? इनमें कोई भी फर्क नहीं। जब तक आदमी कहता है, देखो, मैं विशिष्ट, तब तक कोई फर्क नहीं है। . इस जगत में जो आदमी साधारण होने को राजी है, वही असाधारण है। जो यह कहने को राजी है कि मैं अति साधारण हूं, उसकी ही असाधारणता सुनिश्चित है। क्यों? क्योंकि प्रत्येक को असाधारण होने का खयाल है, इसलिए असाधारण का भाव तो बड़ा साधारण है। तुम अगर कुत्ते से पूछो, घोड़े से पूछो, पशु-पक्षियों से पूछो, अगर वे बोल सकते तो वे भी कहते कि तुम हो क्या! आदमी मात्र ! असाधारण हम हैं। तुम पत्थर से पूछो, अगर पत्थर बोल सकता तो वह भी कहता कि तुम तो बस आदमी हो, आज हुए, कल गए, हम सदा रहते हैं, हम असाधारण हैं। कोई न कोई बात खोज ही लेगा जिसके कारण असाधारण की घोषणा हो सके। असाधारण की घोषणा में अहंकार है। साधारण होने के भाव में अहंकार विसर्जित हो गया। और मजा यह है कि साधारण होते ही तुम असाधारण हो जाते हो। क्योंकि साधारण होने की भावदशा बड़ी असाधारण भावदशा है। कभी कोई बुद्ध, कभी कोई कृष्ण, कभी कोई क्राइस्ट उस दशा को उपलब्ध होते हैं। यह कथा कहती है, उस युवक ने अहंकार के कारण ही शायद संन्यास लिया। यदि कोई अहंकार के कारण ही संन्यास ले तो संन्यास व्यर्थ हो गया। अहंकार से जागकर कोई संन्यास ले तो संन्यास की सार्थकता है। कोई यह देखकर संन्यास ले कि अहंकार व्यर्थ है, दुख लाता है, नर्क है, और अहंकार को छोड़कर जागे, तो संन्यास है। नहीं तो संसार से संन्यासी हो गए, अहंकार वैसा का वैसा रहा, तो रोग पुराना रहा, नाम बदल लिया। भीतर तो पुराना ही कचरा रहा, ऊपर रंग-रोगन कर लिया। यह झूठ चल नहीं सकता। इस झूठ का कोई ज्यादा अर्थ नहीं है, यह प्रगट हो जाएगा। 328

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