Book Title: Dhammapada 08
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 342
________________ ध्यान की खेती संतोष की भूमि में इसलिए युवक संन्यासी तो हो गया, लेकिन पुरानी आदत न छूटी। पुरानी आदत थी अपने को विशिष्ट मानने की। अब अपने को विशिष्ट मानना हो, तो दूसरे कुछ भी नहीं हैं, यह सिद्ध करना जरूरी है। दूसरों की निंदा जरूरी है। अहंकार की छाया की तरह दूसरों की निंदा चलती है। दूसरे कुछ भी नहीं हैं, यह बताना ही पड़ेगा। यह रोज-रोज बताना पड़ेगा। ___ तो वह युवक निंदा करने में संलग्न रहता। और अब निंदा कर भी सुविधा से सकता था, क्योंकि संन्यासी था। ___ तुम जाओ मंदिरों में, आश्रमों में, तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी को सुनो, वह निंदा कर रहा है। वह उन चीजों की निंदा कर रहा है, जिनका तुम भोग करने में आतुर-उत्सुक हो। और शायद वह भी तुम्हें इसीलिए प्रभावित करता है कि उन्हीं बातों की निंदा करता है, जिनमें तुम्हारा रस है। तुम भी जानते हो कि तुम्हारा रस है। उसका भी रस है, नहीं तो निंदा कभी की खो गयी होती। जब कोई साधु-संन्यासी समझाता हो कि धन मिट्टी है, तो जानना कि उसे धन में अभी भी धन दिखायी पड़ता है। क्योंकि वह यह तो नहीं समझाता कि मिट्टी मिट्टी है। धन मिट्टी है! जब कोई साधु-संन्यासी समझाता हो कि स्त्री के शरीर में क्या है, हड्डी, मांस-मज्जा, मल-मूत्र, और कुछ भी नहीं है, जब वह तुम्हें ऐसा समझाता हो तो जान लेना, उसे अभी स्त्री का रूप आकर्षित करता है। वह तुम्हें नहीं समझा रहा है, तुम्हारे बहाने अपने को समझा रहा है। जब वह सांसारिक जीवन की निंदा करता हो, तो वह यह कह रहा है कि देखो, हम संन्यासी कैसे पवित्र, कैसे पुण्य को उपलब्ध! कैसे साधु, कैसे सरल! और देखो तुम अपना पाप और अपना नर्क! वह अपने को ऊपर रख रहा है। वह तुम्हें नीचे रख रहा है। ___ वस्तुतः जब किसी व्यक्ति के जीवन में साधुता का प्रकाश होता है, तो वह तुम्हें नीचे नहीं रखता। वह तो कहता है, तुम भी भगवान हो, तुम भी आत्मवान हो, तुम भी वहीं हो जहां मैं हूं। मुझे पता चल गया, तुम्हें पता नहीं चला, इतना सा भेद है। यह भी कोई खास भेद है! तुम्हारी जेब में हजार रुपए पड़े हैं, मेरी जेब में हजार रुपए पड़े हैं, मुझे पता चल गया, मैंने जेब में हाथ डाल लिया, तुमने हाथ नहीं डाला; यह भी कोई बड़ा भेद है! हजार रुपए तुम्हारी जेब में भी पड़े हैं, तुम जब हाथ डाल लोगे, तभी उपलब्ध हो जाएंगे। न भी हाथ डालो तो भी उपलब्ध हैं ही। जानने में फर्क हो सकता है, होने में कोई फर्क नहीं है। बोध में फर्क हो सकता है, अस्तित्व में कोई फर्क नहीं है। तुममें वही है जो बुद्ध में है, तुममें वही है जो कृष्ण में है, रत्तीभर कम नहीं; तुममें वही है जो मुझमें है, रत्तीभर कम नहीं। सिर्फ तुमने कभी अपनी गांठ खोलकर देखी नहीं। तुमने कभी अपने भीतर टटोला नहीं। बस टटोलने का फर्क है, जिस दिन टटोल लोगे उसी दिन हो जाएगा। ऐसा नहीं कि तुम पापी हो। परमात्मा पापी कैसे हो सकता है। ऐसा नहीं कि 329

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