Book Title: Davvnimittam Author(s): Rushiputra Maharaj, Suvidhisagar Maharaj Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal View full book textPage 3
________________ लिपित्तशास्त्रमा III || मनोगत श्रुतसमुद्र अत्यन्त विशाल है । केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में विषयवस्तु की अपेक्षा कोई भिन्नत्व नहीं है। केवलज्ञान जितनी और 1. जिन वस्तुओं को प्रत्यक्ष जानता है, उन्हीं और उतनी वस्तुओं को श्रुतज्ञान । परोक्षरूप से जानता है । प्रत्यक्ष और परोक्षकृत अन्तर ही केवलहान और श्रुतज्ञान में पाया जाता है। श्रुतज्ञान अंगबाह्य और अंगप्रविष्ठ के भेद से दो प्रकार का है । अंगप्रविष्ठ श्रुतज्ञान आधारांग आदि बारह अंगों में विभाजित है। बारहवें अंग का नाम दृष्टिवाद है । उसके परिकर्म, सूत्र, प्रथमामुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पाँच भेद हैं। पूर्वगत चौदह भेदों वाला है। विद्यानुवाद । पूर्वमत का दसवाँ पूर्व है । यह पूर्व समस्त जैनमन्त्रों व ज्योतिष का उद्गाता है । उसमें अष्टांग निमित्तों का वर्णन किया गया है। इसके । । अतिरिक्त परिकर्म नामक दृष्टिवादांग में ज्योतिष से सम्बन्धित सम्पूर्ण रहस्य अंकित हैं। उन्हीं अंगों और पूर्वो का अंश प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ का नाम दव्वणिमित्तं अर्थात् निमित्तशास्त्रम है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में ग्रन्धकर्ता ने भगवान आदिनाथ को नमस्कार किया है । तत्पश्चात् भगवान महावीर को नमन करके ग्रन्थकर्ता ने न्ध को रचने की प्रतिज्ञा की है। चौथी गाथा में निमित्त के तीन भेद किये गये हैं। यशा . णमिऊण वड्डमाणं णवकेवललद्धिमंडियं विमल । वोच्छंदव्वणिमित्तं रिसिपुत्तयणामदो तत्थ ॥२॥ अर्थ :- नौ केवललब्धियों से मण्डित, अत्यन्त विमल श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार करके मैं (फ्राषिपुत्र) दवणिमित्तं अर्थात् निमित्तशास्त्र नामक ग्रन्थ है का कथन करता हूँ। तत्पश्चात् ग्रन्थकर्ता लिखतें हैं कि मैं चारणमुनियों के व्दारा दृष्ट, उन्हीं के व्दारा वर्णित तथा निमित्तबानियों के व्दारा कथित निमित्तों,Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 133