Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ आमुख तदेव तस्मै कस्मैचित्परस्मै ब्रह्मणेऽमुना । सूक्ष्मेनेदं मनः शब्दब्रह्मणा संस्करोम्यहम् ॥ --अध्यात्म-रहस्य भारत की पुरालिपि और पुराविद्या के साधकों को उन पाश्चात्य पण्डित का कृतज्ञ होना ही चाहिए, जिन्होंने अल्पसाधनों के मध्य भी इन विषयों पर लिखा साधन सीमित थे, सामग्री अल्प थी और वे दूर-देशान्तरों की भाषा और लिपि के परिवेश में पनपे और बढ़े थे। उनका दष्टिकोण भिन्न होना स्वाभाविक था। उन्होंने जैसा समझा, लिखा । आज हमारी गवेषणाओं के लिए उनका दिया आधार तो है ही। नये साधन, नयी सामग्री और नये युगबोध के सन्दर्भ में, यदि उनका लिखा हुआ, दूर-दराज से आती आवाज-सा मालूम पड़े तो आश्चर्य का विषय नहीं है । गवेषणा का रथ सतत चलता है। किसी एक को शोध-खोज मील का अन्तिम पत्त्थर नहीं होती। यह भी नहीं होगा, ऐसा मैं विनत हो मानता हूँ। __ ब्राह्मी लिपि का मलदेश भारत नहीं था, भारतनिवासी लिपिविद्या से शून्य थे, उन्हें यह ज्ञान बाहरी देशों के सम्पर्क से मिला आदि अनेक बातें चल पड़ी थीं। सब-से-पहले ओझा जी ने, 'प्राचीन लिपिमाला' में इन सब पर तटस्थ होकर विचार किया। वे विशुद्ध भारतीय थे । उनका दृष्टिकोण भी वैसा ही था । वे सच्चे शोधक और जिज्ञासु थे। फिर भी, उनके काल तक, जैन शास्त्र-भण्डार बन्द थे। उनमें प्रवेश असम्भव-प्रायः था । ओझाजी विवश थे, ठीक वैसे ही जैसे प्रो. जैकोबी, जैसे डा. विण्टरनित्स । आज वह सामग्री उपलब्ध है। मैंने उसका यथासम्भव यथाशक्य प्रयोग किया है। फिर भी, बहुत कुछ ऐसा बच गया होगा, जिसे मैं नहीं देख सका हूँ। उसे अन्य देखेंगे, ऐसा विश्वास है । ब्राह्मी के उद्गम को खोजते हुए अनेक कल्पनायें की गईं। किसी ने वेद, किसी ने ब्रह्म, किसी ने ब्राह्मण और किसी ने ब्रह्मदेश को ब्राह्मी का जनक बताया। किन्तु श्रमणधारा के आदि प्रवर्तक सम्राट ऋषभदेव की ओर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ । मैंने अपने ग्रन्थ 'भरत और भारत' में उनका उत्लेख किया है । ऋषभदेव के पिता नाभिराय अन्तिम कुलकर थे। अन्तिम होते हुए भी दीर्घायु, समुन्नत शरीर, अप्रतिम रूप-सौन्दर्य, अपार बल-विक्रम और विपुल गुणों के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 156