Book Title: Brahmi Vishwa ki Mool Lipi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 11
________________ डॉ. सुनीतिकुमार चाटा का कथन है कि मोहन-जो-दरोलिपि के कुछ चिह्न ब्राह्मी-वर्णों के सदृश या लगभग वही हैं। इसके अतिरिक्त व्यञ्जन वर्णों में स्वरमात्राओं के लगाने को ब्राह्मीविशिष्टता भी मोहन-जो-दरो-लिपि में प्राप्त होती है। ब्राह्मी सार्वभौम थी। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन का अभिमत है कि यदि कोई एक ब्राह्मी लिपि को अच्छी तरह सीख जाये, तो वह अन्य लिपियों को थोड़े ही परिश्रम से सीख सकता है और शिलालेख आदि को पढ़ सकता है, क्योंकि सारी लिपियाँ ब्राह्मी से ही उद्भूत हुई हैं। जैन यायावर साधु सीलोन और जावा-सुमात्रा तक ही नहीं, अपितु पश्चिमी एशिया, यूनान, मिश्र और इथियोपिया आदि देशों के पहाड़ों और जंगलों में जा-जा कर जगह-जगह बसे हुए थे। वहाँ उन्होंने ब्राह्मी लिपि का प्रचार-प्रसार किया। महावीर का तीर्थकाल पश्चिम के अरस्तू और चीन के शुइनत्सू के सिद्धान्तों का मध्य स्रोत तथा पायथेगोरस और कन्फ्यूशस की विचार-क्रान्ति का मिलन-स्थल माना जाता है। ब्राह्मी लिपि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक है । उसमें प्रत्येक ध्वनि के लिए निश्चित चिह्न हैं। घोष, अघोष, अल्पप्राण, महाप्राण और अनुनासिक-सभी प्रकार की ध्वनियों के लिए लिपि-चिह्न निर्धारित हैं। ध्वनि तथा उसके प्रतीक चिह्न के उच्चरण में यत्किञ्चिद् भी अन्तर नहीं है। सेमेटिक और आर्मेइक में सबसे बड़ी कमी है कि उसमें ध्वनि के अनुरूप अक्षर नहीं हैं । दीर्घ स्वर का नितांत अभाव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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