________________
समता
साधना का नवनीत है-समता । समभावी साधक सम्मान होने पर फूलता नहीं और अपमान होने पर क्रोध नहीं करता। आज हमारे भाग्य को कुजी दूसरे के हाथों में चल रही है । टेप-रेकार्डर बोलता है पर वह उसकी आवाज नहीं होती किसी दूसरे की होती है।
आज हम स्वयं अपने स्वामी नहीं रहे हैं । हम दूसरे के बटखरों से अपने को तोलते हैं, दूसरों के गजों से अपने को नापते हैं।
राम को दशरथ ने राज्य देने की बात कही तब भी प्रसन्नता नहीं थी और वनवास देने पर विषाद नहीं था। जो अपने में रमण करता है वही राम है । बाह्य में रमण करने वाले को आनन्द कहाँ ?
एक सामूहिक भोज था, हजारों व्यक्ति भोजन कर रहे थे। भोजन के उपसंहार में भोजन परोसने वाले के द्वारा पापड़ परोसा जा रहा था । पंक्ति में बैठे हुए व्यक्ति को वह क्रमश: पापड़ देता हुआ चला जा रहा था, किन्तु एक व्यक्ति को पापड़ देते समय वह पापड़ किञ्चित् खण्डित हो गया । परोसने वाले ने बिना किसी दुर्भावना के खण्डित
बिन्दु में सिन्धु ८७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org