Book Title: Bindu me Sindhu
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 101
________________ पापड़ परोस दिया । भोजन करने वाला व्यक्ति सोचने लगा-मालूम होता है मुझको अपमानित करने के लिए ही इसने मुझे खण्डित पापड़ दिया है। समय आने पर मैं इसका बदला लूंगा। उस व्यक्ति ने अपने मन में अपमान की गाँठ बाँध ली। वह गरीब था । उसने इधर उधर से कर्ज लेकर सारे ग्राम को भोजन के लिए निमन्त्रण दिया । भोजन की विविध तैयारियाँ की। भोजन पूर्ण होने के पूर्व वह स्वयं आकर पापड़ परोसने लगा । उस व्यक्ति के पास आकर उसने पापड़ को खण्डित कर परोसा । उस सेठ के मन में तो कुछ भी भावना नहीं थी, उसने पापड़ को खाना शुरू कर दिया। उस व्यक्ति ने हँसते हुए सेठ से कहा-देखिए सेठजो, मैंने आपको खण्डित पापड़ परोस कर पुराना बदला ले लिया है। आपको स्मरण है न । उस दिन आपने मुझे खण्डित पापड़ परोसा था। सेठ ने मुस्कराते हुए कहा-वस्तुतः तू मूर्ख रहा, क्या उसी बदले को लेने के लिए तेने इतना कर्ज किया ? श्रेष्ठ तो यही था कि मुझे अकेले में बुलाकर भी तू अपना बदला ले सकता था, इस प्रकार की बर्बादी तो नहीं होती। ___ यह प्रतिक्रिया अपमान के कारण पैदा हुई, पर योगी इनसे परे होता है। ८८ बिन्दु में सिन्धु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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