Book Title: Bikhare Moti
Author(s): Hukamchand Bharilla, Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ आचार्य कुन्दकुन्द विदेह गये थे या नहीं? 5 दिव्यध्वनि का साक्षात् श्रवण किया है तो उन आचार्यों की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती, जिनको सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों का लाभ नहीं मिला था या जिन्होंने सीमन्धर परमात्मा से साक्षात् तत्त्वश्रवण नहीं किया था, जो किसी भी रूप में ठीक नहीं होता । दूसरी बात यह भी तो है कि विदेहक्षेत्र तो वे मुनि होने के बाद गए थे । वस्तुस्वरूप का सच्चा परिज्ञान तो उन्हें पहले ही हो चुका था । यह भी हो सकता है कि उन्होंने अपने कुछ ग्रन्थों की रचना पहले ही कर ली हो। पहले निर्मित ग्रन्थों में तो उल्लेख का प्रश्न ही पैदा नहीं होता, पर यदि बाद के ग्रन्थों में उल्लेख करते तो पहले के ग्रन्थों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता । अतः उन्होंने जानबूझकर स्वयं को महावीर और भद्रबाहु श्रुतकेवली की आचार्य परम्परा से जोड़ा । यदि वे अपने को सीमन्धर तीर्थंकर अरहंत की परम्परा से जोड़ते या जुड़ जाते तो दिगम्बर धर्म को अत्यधिक हानि उठानी पड़ती। 1 यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भगवान महावीर साधु अवस्था में सम्पूर्णत: नग्न थे । अत: हमारे श्वेताम्बर भाई अपने को महावीर की अचेलक परम्परा से न जोड़कर पार्श्वनाथ की सचेलक परम्परा से जोड़ते हैं । इसप्रकार वे अपने को दिगम्बर से प्राचीन सिद्ध करना चाहते हैं। वस्तुतः तो पार्श्वनाथ भी अचेलक ही थे। पार्श्वनाथ ही क्या, सभी तीर्थंकर अचेलक ही होते हैं, पर स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव में वे उन्हें अपने मत की पुष्टि के लिए सचेलक मान लेते हैं । आचार्य कुन्दकुन्द अपने को सीमन्धर परमात्मा से जोड़ते तो दिगम्बरों को विदेहक्षेत्र की परम्परा का जैन कहा जाने लगता; क्योंकि कुन्दकुन्द दिगम्बरों के सर्वमान्य आचार्य थे । इसप्रकार चौबीस तीर्थंकरों की परम्परा के उत्तराधिकार का दावा श्वेताम्बर भाई करने लगते । अतः दिगम्बर परम्परा का प्रतिनिधित्व करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द का बार-बार यह घोषित करना कि मैं और मेरे ग्रन्थ भगवान महावीर, गौतम गणधर और श्रुतकेवली भद्रबाहु की परम्परा के ही हैं, अत्यन्त आवश्यक था।

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