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दूहा
महाराज।
१ दया-धर्म अति दीपतौ, श्री जिण आण सहीत।
भीक्खू स्वाम भली परै, पवर धर्यो अति पीत।। २ केइ हिस्याधर्मी कहै- दया दया पुकारौ कांय।
दया रांड लोटै पडी, 'उकरड़ी'२ रै माय॥ ३ भीक्खू ऋष भाखै भली, दया मात दीपाय। __ 'उत्तराधेन चौबीस मैं ३, कही आठ प्रवचन माय।। ४ किण सेठ आउ पूरौ कीयौ, स्त्री रही लारै सोय।
सपूत सुत है ते सही, जत्न करै ते जोय।। ५ कपूत व ते मात नैं, वदै वचन विकराल। रंडकार नी गाल दै, बोलै
आळ-पंपाळ।। ६ धणी दया नां दीपता, महावीर
ते तो मोख सिधावीया, कीधा आतम काज।। ७ श्रावक-साध सपूत ते, दया मात इम जांण।
जन करै अति जुगत सूं, विरुइ न वदै वांण।। ८ प्रगट्या कपूत थां जिसा, बोलावौ कहि रांड।
दया मात नैं गाळ दै, ते भव-भव होवै भांड।। ९ जिनमत एम जमावता, पाखंड मत परिहार। स्वाम रवि जिहां संचऱ्या, तिमर हरण इकतार।।
ढाळ : ३६
(राजनगर भणतां थकां रे) १ किणहिक भीक्खू नैं कह्यौ रे, थे जावो जिण गांम रै माय। धसका' पडै लोकां तण, तिण रौ कांइ कारण कहिवाय?
भीक्खू भव तारक भारी. रे, आप प्रगट्या अवतारी रे। उत्पत्तिया बुद्धि अधिकारी रे, दिष्टंत दीया सुविचारी रे ॥ध्रुवपद।।
१. भि. दृ. २७। २. कूड़े का ढेर-घूरा। ३. उत्तरज्झयणाणि. अ. २४ गा. १, २।
४. भि. दृ.-२९९। ५. मानसिक आघात।
भिक्खु जश रसायण : ढा. ३६
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