Book Title: Bharatiya Shilpkala ke Vikas me Jain Shilpkala ka Yogadan
Author(s): Shivkumar Namdev
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 4
________________ अधोवस्त्र का समावेष कुषाणयुग के पश्चात किया गया। इस युग में तीर्थकरों के विभिन्न प्रतीकों का परिज्ञान न हो सका था । विभिन्न तीर्थं करों को पहचानने के लिए तीर्थं करों की चौकियों पर अंकित लेखों में नाम का उल्लेख ही पर्याप्त था । कुषाण युग में मथुरा कला में तीर्थंकरों के लांछन नहीं पाये जाते हैं, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान की जाती थी। केवल आदिनाथ के कंधों पर खुले । हुए केशों की लटें दिखाई गई है और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्पणों का आटोप है। तीर्थ कर मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स एवं मस्तक के पीछे तेजचक्र या प्रभामण्डल पाया जाता है। फणाटोप वाली मूर्तियों में प्रभामण्डल नहीं रहता। चौकी पर केवल चक्र ध्वज या जिनमूर्ति या सिंह का अंकन पाया जाता हैं । भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से विख्यात गुप्तकाल में यद्यपि जैनधर्म अधिक लोकप्रिय नहीं था, परन्तु अनेक साक्ष्यों से इस काल में जैन धर्म पर प्रकाश पड़ता है। इस युग में कला प्रौढ़ता को प्राप्त हो चुकी थी। जैन प्रतिमायें सुन्दरता एवं कलात्मक दृष्टि से उत्तम हैं । अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स ये विशेषतायें गुप्तकूल में परिलक्षित होती हैं। जैन मूर्तियां बनावट की दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। प्रतिमाओं में चक्र, चौकी के मध्य तैयार किए गये, जिसके दोनों पार्श्व में दो हिरण या वृषभ खोदे गए हैं सिरे पर तीन (चक्र) रेखाओं का छत्र दिखलाया गया है जिसके दोनों ओर हरित स्थित हैं गुप्तयुगीन जैन प्रतिमाओं में यक्षयक्षिणी. मालावाही गंधर्व आदि देवतुल्य मूर्तियों को भी स्थान दिया गया था। उत्तर गुप्तकाल में जैन कला सम्बन्धी अनेक केन्द्र काम करने लगे । अतः स्थानीय प्रतिमाओं की संख्या पर्याप्त रूप से मिलती है। तांत्रिक भावना ने कला को प्रभावित किया । कलाकारों का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया, परन्तु शास्त्रीय नियमों से बद्ध होने के कारण जैन कलाकारों को स्वतंत्रता न रही । इस युग में 24 तीर्थ करों से सम्बन्धित चौबीस यक्ष-यक्षिणी को भी कला में स्थान दिया गया। Jain Education International प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण नगर विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से कुछ वर्ष पूर्व रामगुप्तकालीन तीन अभिलेख युक्त जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई थी। इन प्रतिमाओं की प्राप्ति से भारतीय इतिहास में अर्द्धशती से चले आ रहे इस विवाद का निराकरण संभव हो सका कि रामगुप्त गुप्त शासक था या नहीं ।" उपर्युक्त तीनों प्रतिमाओं में से दो प्रतिमायें चन्द्रप्रभ एवं एक अर्हत पुष्पदंत की हैं। यद्यपि मूर्तियां कुछ नग्न हैं तथापि कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । चन्द्रप्रभ की प्रथम मूर्ति के दक्षिण कर्ण में एक कड़ा एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्हांकित हैं। पदमासनस्थ इस प्रतिमा के पाठपीठ पर मध्य में चक्र एवं दोनों पार्श्व में सिंह उत्कीर्ण है । मूर्ति का शरीर गठीला है । मस्तक के पीछे आभामण्डल या जो नष्ट हो गया है। चन्द्रप्रम की द्वितीय प्रतिमा का मुख भाग पूर्णरूपेण खंडित है । पीछे तेजोमण्डल जिसका अर्धभाग ही शेष है । वक्ष पर श्रीवत्स अंकित यह प्रतिमा भी पद्मासनस्थ है। पादपीठ के मध्य चक्र उत्कीर्ण हैं। दोनों पार्श्व पर चामरधारी हैं। तृतीय प्रतिमा अर्द्धत पुष्पदंत की है जो उपरिवर्णित प्रतिमा के ही सदृश्य है। बक्सर के निकट चौसा (बिहार) से उपलब्ध कुछ कांस्य प्रतिमायें पटना के संग्रहालय में है। इन 11. विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त प्रतिमायें एवं रामगुप्त शिवकुमार नामदेव, शिवकुमार नामदेव, अनेकांत मई 1974 मध्यप्रदेश संदेश, 28 अक्टूबर 1972 जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त की ऐतिहांसिकता शिवकुमार नामदेव, भ्रमण, अप्रैल 1974 1 १८४ For Private & Personal Use Only विदिशा से प्राप्त विदिशा से प्राप्त www.jainelibrary.org

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