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भारतीय शिल्पकला के विकास में
जैन शिल्पकला का योगदान
भारत की प्राच्य संस्कृति के लिए जहाँ जैन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, वहीं जैन कला के अध्ययन का भी कुछ कम महत्व नहीं है । जेन कला अपनी कुछ विशिष्ट विशेषताओं के कारण भारतीय कला में अपना विशिष्ट महत्व रखती । जैन धर्म की स्वर्णिम - गौरव गरिमा को प्रतीक प्रतिमाएँ, पुरातन मंदिर, विशाल स्तंभादि प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के ज्वलंत निदर्शन हैं । अतीत इनमें अंतर्निहित है । सम्बता एवं संस्कृति की रक्षा एवं अभिवृद्धि में साहित्यकार जहाँ लेखनी के माध्यम से समाज में अपने भावों को व्यक्त करता हैं, वहीं कलाकार पार्थिव उपादानों के माध्यम द्वारा आत्मस्थ भावों को अपनी सधी हुई छैनी से व्यक्त करता है ।
मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनकला ने अर्हन्तों की अगणित कायोत्सर्ग एवं पद्मासन ध्यान मग्न मूर्तियों का निर्माण किया है जो पाषाण से लेकर मूंगा, हीरा,
पुखराज, नीलम आदि से निर्मित है । मामूली ताँबा, पीतल से लेकर रजत, स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातुओं से निर्मित आकार में छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी जैन धर्म की इन प्रतिमाओं में कितनी ही तो चतुर्मुख एवं कितनी ही सर्वतोभद्र हैं । जैन पुरातत्व की प्रमुख वस्तु प्रतिमा है । भारत के विभिन्न भूभागों में जैन मूर्तियों की उपलब्धि होती रहती है, जिनकी मौलिक मुद्रा एक होते हुए भी परिकर में प्रांतीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । मुखाकृति पर भी असर होता है ।
डा० शिवकुमार नामदेव
जैन मत में मूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं विकास का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है । जैन मत दो प्रमुख पंथ श्वेतांबर एवं दिगम्बर में विभाजित है । श्वेतांबर सदैव ही अपनी प्रतिमाओं को वस्त्राभूषण आदि से सुसज्जित रखते थे । ये पुष्पादि द्रव्यों का प्रयोग करते हैं तथा अपने देवालयों में दीपक भी नहीं जलाते । दिगम्बर मूर्तियाँ नग्न रहतीं थीं ।
1. जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास- शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, मई 1974
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भारत की प्राचीनतम मूर्तियाँ सिन्धु घाटी में मोहन जोदड़ो एवं हड़प्पा आदि स्थलों के उत्खनन से प्राप्त हुई हैं। इस सभ्यता में प्राप्त मोहन जोदड़ो के पशुपति को यदि शैव धर्म को देव मानें तो हड़प्पा से प्राप्त नग्न घड़ को दिगम्बर की खंडित मूर्ति मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।"
सिन्धु सभ्यता के पशुओं में एक विशाल स्कंधयुक्त वृषभ तथा एक जटाजूटधारी का अंकन है । वृषभ तथा एक जटाजूट के कारण इसे प्रथम जैन तीर्थं कर आदिनाथ का अनुमान कर सकते हैं ।" हड़प्पा से प्राप्त मुद्रा क्रमांक 300, 317 एवं 318 में अ ंकित प्रतिभा अजानुलंबित, बाहुद्वय सहित कायोत्सर्ग मुद्रा में है ।' हड़प्पा के अतिरिक्त उपरोक्त साक्ष्य हमें मोहनजोदड़ो में भी उपलब्ध होता है । "
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मथुरा एवं उदयगिरि-खण्डगिरि का पुरातत्व भी जिन मूर्तियों के प्राचीन आस्तित्व को सिद्ध करते हैं । जैन स्तूप पर मूर्तियां अंकित रहती थीं । ईसा की पहली शताब्दी में मथुरा में 'वह प्राचीन स्तूप विद्यमान था जो इस काल में देव निर्मित समझा जाता था और जिसे बुल्हर तथा स्मिथ ने भगवान पार्श्वनाथ के काल का बताया था ।
भारतीय कला का क्रमबद्ध इतिहास मौर्यकाल से प्राप्त होता है। मौर्यकाल में मगध जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था । इस काल की तीर्थंकर की एक प्रतिमा लोहानीपुर से प्राप्त हुई है ।" मूर्ति के हाथ एवं मस्तक टूट गये हैं। पैर भी जंघा के पास से नहीं हैं । प्रतिमा पर मौर्यकालीन उत्तम पालिश है । तंग वक्षस्थल तथा क्षीण शरीर जैनों के तपस्यारत शरीर का उत्तम नमूना है । पीठ प्राय. चौरस है, पीछे से काठ से प्रतीत होती है । यह प्रतिमा किसी ताख में रखकर पूजार्थ प्रयुक्त की जाती रही होगी । पार्श्वनाथ की एक कांस्य मूर्ति जो मौर्यकाल की मानी जाती है, कायोत्सर्गासन में है । यह प्रतिमा बम्बई के संग्रहालय में संरक्षित है ।
शुंगकाल (185 ई. पू. से 72 ई. पू.) में जैन धर्म के अस्तित्व की द्योतक कतिपय प्रतिभायें उपलब्ध हुई हैं । लखनऊ संग्रहालय' में संरक्षित शुंगयुगीन मथुरा से प्राप्त एक कपाट पर ऋषमदेव के सम्मुख अप्सरा नीलांजना का नृत्य चित्रित है। कपाट में अनेक नरेशों सहित ॠषमदेव को बैठे हुए दिखाया गया है, नर्तकी का दक्षिण पैर नृत्य मुद्रा में उठा हुआ है तथा दक्षिण हाथ भी नृत्य की भंगिमया को प्रस्तुत कर रहा है । संगत-राश निकट ही बैठे हुए हैं ।
12. स्टेडीज इन जैन आर्ट - यू. पी. शाह, चित्र फलक क्रमांक 1 3. सरवाइवल ऑफ दि हड़प्पा कल्चर – टी. जी. अथन, पृष्ठ 55
4. हडप्पा ग्रंथ 1, वत्स एम. एस., पृष्ठ 129-130, फलक 931
5. बही, पृष्ठ 28 मार्शल - मोहन जोदड़ो एन्ड इन्डस वैली सिविलाइजेशन, ग्रंथ 1, फलक 12, आकृति 13.
14. 18, 19, 22 1
6. निहाररंजन रे - मौर्य एन्ड शुंग आर्ट, चित्र फलक 28, काम्प्रिहेनसिव हिस्ट्री ऑफ इन्डिया - संपादक: के. ए. नीलकंठशास्त्री, चित्र फलक 38, स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी शाह, चित्र फलक 1 क्रमांक 2, मौर्य साम्राज्य का इतिहास - सत्यकेतु विद्यालंकार, चित्र फलक 10, भारतीय कला को बिहार की देन - विन्ध्येश्वरीप्रसाद सिंह, चित्र संख्या 30 |
7. स्टेडीज इन जैन आर्ट - यू. पी. शाह, चित्र फलक 2, आकृति 5
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प्रिंस ऑफ वेल्सम्यूजियम बम्बई में जैन तीर्थ कर कुषाण युग के अनेक कलात्मक उदाहरण मथूरा पार्श्वनाथ की प्राचीन कांस्य प्रतिमा संग्रहीत है । यह के कंकाली टीले की खुदाई से उपलब्ध हुए हैं। यहाँ कायोत्सर्गासन में है, उनका सर्पफणों का वितान एवं से प्राप्त एक आयागपट्ट जिस पर महास्वस्तिक का दक्षिण कर खंडित है । ओष्ठ लंबे एवं हृदय पर चिन्ह बना है, के मध्य में छत्र के नीचेपद्मासन में श्रीवत्स चिन्हांकित नहीं है. जो परवर्तीकाल में प्राप्त तीर्थकर मूर्ति है, उनके चारों ओर स्वस्तिक की चार होता है। श्री यू.पी. शाह ने प्रतिमा का काल 100 ई. भुजाएं हैं। तीर्थ कर के मण्डल की चार दिशाओं में पू. के लगभग सिद्ध किया है ।
चार त्रिरत्न दिखाये गये हैं। कलात्मक दृष्टि से
लखनऊ संग्रहालय में संरक्षित आयागपट्ट' (क्रमांक जे. ___ शं गकालीन कंकाली टोला (मथुरा) से जैन स्तूप
249) महत्वपूर्ण है । इसकी स्थापना सिंहनादिक ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं इसके साथ ही उसी काल के
अर्हत् पूजा के लिए की थी । मध्य में पद्मासन पर पूजा पट्ट भी उपलब्ध हुए है जिन्हें आयाग पट्ट भी
बैठी हुई तीर्थक र मूर्ति है । पट्ट की बाह्य चौखट पर कहा जाता था । यह प्रस्तर अलंकृत हैं तथा आठ
आठ मंगलिक चिन्ह हैं। मांगलिक चिन्हों से युक्त है। पूजा निमित्त अमोहिनी ने इसे प्रदान किया था । इस युग का एक प्रधान केन्द्र
आयागपट्ट पर जो मांगलिक चिन्ह हैं उनकी उड़ीसा में था। यहाँ की उदयगिरि पहाड़ियों पर जैन
स्थिति से मूर्ति को जन प्रतिमा मानने में संदेह नहीं धर्म से सम्बन्धित गृहायें उत्कीर्ण हैं।
रह जाता ये चिन्ह हैं =स्वास्तिक, दर्पण, भस्मपात्र, शुंग एवं कुषाण युग में मथुरा जैन धर्म का प्राचीन वेंत की तिपाई (भद्रासन), दो मछलियाँ, पुष्पमाला केन्द्र था । यहाँ के कंकाली टीले के उत्खनन से बह- एवं पुस्तक । कुषाण युग के अन्य आयागपट ट पर जो संख्यक मूर्तियाँ प्राप्त हई हैं। ये मूतियाँ किसी समय मांगलिक खुदे हैं उनमें दर्पण तथा नंधावर्त का अभाव मथुरा के दो स्तूपों में लगी हई थीं । अहंत नंधावर्त है। संभवतः कनिष्क के काल (प्रथम सदी ई.) तक की एक प्रतिमा जिसका काल 89 ई. है, इस स्तूप के अष्टमांगलिक चिन्हों की अंतिम सूची निश्चित न हो उत्खनन से प्राप्त हुई है।
सकी थी। यहाँ से उपलब्ध जैन मूर्तियां, बोट मूर्तियों से विवेच्य युग में प्रधानतः तीर्थ कर की प्रतिमाएं इतना सहश्य रखती हैं कि दोनों का विभेद करना तैयार की गई जो कायोत्सर्ग एवं आसन अवस्था में कठिन हो जाता है। यदि श्रीवत्स पर ध्यान न दिया हैं। मथुरा के शिल्पयों के सम्मुख यक्ष की प्रतिमायें ही जाय तो ऊपरी अंगों की समानता के कारण जैन को आदर्श थीं, अतः कायोत्सर्ग स्थिति में तीथं कर की बौद्ध एवं बौद्ध को जैन मूर्ति कहने में कोई आपत्ति नहीं विशालकाय नग्न मूर्तियाँ बनने लगीं। कंकाली टीले के होगी । कारण यह था कि कुषाण युग के प्रारम्भ में उत्खनन से प्राप्त वहसंख्यक नग्न तीर्थ कर की प्रतिमायें कला में धार्मिक कट्टरता नहीं थी।
लखनऊ के संग्रहालय में हैं । तीर्थ कर प्रतिमाओं में
8. वही, आकृति 31 9. भारतीय कला- वासुदेव शरण अग्रवाल, पृष्ठ 281-282, चित्र फलक 3161 10. वही. पृष्ठ 282-283, चित्र संख्या 318 |
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अधोवस्त्र का समावेष कुषाणयुग के पश्चात किया गया। इस युग में तीर्थकरों के विभिन्न प्रतीकों का परिज्ञान न हो सका था । विभिन्न तीर्थं करों को पहचानने के लिए तीर्थं करों की चौकियों पर अंकित लेखों में नाम का उल्लेख ही पर्याप्त था ।
कुषाण युग में मथुरा कला में तीर्थंकरों के लांछन नहीं पाये जाते हैं, जिनसे कालांतर में उनकी पहचान की जाती थी। केवल आदिनाथ के कंधों पर खुले । हुए केशों की लटें दिखाई गई है और सुपार्श्वनाथ के मस्तक पर सर्पणों का आटोप है। तीर्थ कर मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स एवं मस्तक के पीछे तेजचक्र या प्रभामण्डल पाया जाता है। फणाटोप वाली मूर्तियों में प्रभामण्डल नहीं रहता। चौकी पर केवल चक्र ध्वज या जिनमूर्ति या सिंह का अंकन पाया जाता हैं ।
भारतीय इतिहास में स्वर्णयुग के नाम से विख्यात गुप्तकाल में यद्यपि जैनधर्म अधिक लोकप्रिय नहीं था, परन्तु अनेक साक्ष्यों से इस काल में जैन धर्म पर प्रकाश पड़ता है। इस युग में कला प्रौढ़ता को प्राप्त हो चुकी थी। जैन प्रतिमायें सुन्दरता एवं कलात्मक दृष्टि से उत्तम हैं । अधोवस्त्र तथा श्रीवत्स ये विशेषतायें गुप्तकूल में परिलक्षित होती हैं। जैन मूर्तियां बनावट की दृष्टि से उच्चकोटि की हैं। प्रतिमाओं में चक्र, चौकी के मध्य तैयार किए गये, जिसके दोनों पार्श्व में दो हिरण या वृषभ खोदे गए हैं सिरे पर तीन (चक्र) रेखाओं का छत्र दिखलाया गया है जिसके दोनों ओर हरित स्थित हैं गुप्तयुगीन जैन प्रतिमाओं में यक्षयक्षिणी. मालावाही गंधर्व आदि देवतुल्य मूर्तियों को भी स्थान दिया गया था। उत्तर गुप्तकाल में जैन कला सम्बन्धी अनेक केन्द्र काम करने लगे । अतः स्थानीय
प्रतिमाओं की संख्या पर्याप्त रूप से मिलती है। तांत्रिक भावना ने कला को प्रभावित किया । कलाकारों का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया, परन्तु शास्त्रीय नियमों से बद्ध होने के कारण जैन कलाकारों को स्वतंत्रता न रही । इस युग में 24 तीर्थ करों से सम्बन्धित चौबीस यक्ष-यक्षिणी को भी कला में स्थान दिया गया।
प्राचीन भारत के महत्वपूर्ण नगर विदिशा के निकट दुर्जनपुर ग्राम से कुछ वर्ष पूर्व रामगुप्तकालीन तीन अभिलेख युक्त जैन प्रतिमायें प्राप्त हुई थी। इन प्रतिमाओं की प्राप्ति से भारतीय इतिहास में अर्द्धशती से चले आ रहे इस विवाद का निराकरण संभव हो सका कि रामगुप्त गुप्त शासक था या नहीं ।"
उपर्युक्त तीनों प्रतिमाओं में से दो प्रतिमायें चन्द्रप्रभ एवं एक अर्हत पुष्पदंत की हैं। यद्यपि मूर्तियां कुछ नग्न हैं तथापि कलात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । चन्द्रप्रभ की प्रथम मूर्ति के दक्षिण कर्ण में एक कड़ा एवं वक्ष पर श्रीवत्स चिन्हांकित हैं। पदमासनस्थ इस प्रतिमा के पाठपीठ पर मध्य में चक्र एवं दोनों पार्श्व में सिंह उत्कीर्ण है । मूर्ति का शरीर गठीला है । मस्तक के पीछे आभामण्डल या जो नष्ट हो गया है। चन्द्रप्रम की द्वितीय प्रतिमा का मुख भाग पूर्णरूपेण खंडित है । पीछे तेजोमण्डल जिसका अर्धभाग ही शेष है । वक्ष पर श्रीवत्स अंकित यह प्रतिमा भी पद्मासनस्थ है। पादपीठ के मध्य चक्र उत्कीर्ण हैं। दोनों पार्श्व पर चामरधारी हैं। तृतीय प्रतिमा अर्द्धत पुष्पदंत की है जो उपरिवर्णित प्रतिमा के ही सदृश्य है।
बक्सर के निकट चौसा (बिहार) से उपलब्ध कुछ कांस्य प्रतिमायें पटना के संग्रहालय में है। इन
11. विदिशा से प्राप्त जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त प्रतिमायें एवं रामगुप्त शिवकुमार नामदेव,
शिवकुमार नामदेव, अनेकांत मई 1974 मध्यप्रदेश संदेश, 28 अक्टूबर 1972 जैन प्रतिमायें एवं रामगुप्त की ऐतिहांसिकता शिवकुमार नामदेव, भ्रमण, अप्रैल 1974 1
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विदिशा से प्राप्त विदिशा से प्राप्त
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प्रतिमाओं में से कुछ पर गंधार कला का स्पष्ट प्रभाव में निर्मित महावीर की एक प्रतिमा मथुरा संग्रहालय में दृष्टिगोचर होता है । यहां से उपलब्ध ऋषभनाथ की है। यह उत्थित पद्मासन में है।16 एक स्थानक प्रतिमा महत्वपूर्ण है। प्रतिमा का प्रभा । मण्डल एवं शरीर गठन कला की दृष्टि से सुन्दर नहीं।
____सीरा पहाड़ की जन गुफाये तथा उनमें उत्कीर्ण
मनोहर तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण इसी काल में है । ओष्ठ मोटे प्रतीत होते हैं ।
हुआ। यहां से प्राप्त पार्श्वनाथ की मूर्ति सप्तफणों से युक्त राजमिरि की वैभार पहाड़ी पर एक खंडित देवा- पदमासनरूढ है। भारत कला भवन काशी में संरक्षित लय के आले में एक प्रतिमा पदमासनस्थ ध्यानावस्थित राजघाट से प्राप्त धरणेन्द्र एवं पदमावती सहित पावहै, प्रतिमा के मूर्तितत्व पर मध्य में एक युवा राज- नाथ की प्रतिमा कला की दृष्टि से सुन्दर है। कुमार अकित है जिनके दोनों पार्श्व में पैरों के निकट शंख हैं। प्रभामण्डल से युक्त इस प्रतिमा को कुछ वर्धमान महावीर को दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व विद्वानों ने नेमिनाथ को माना था, परन्तु वास्तव में जीवंत स्वामी के नाम से जाना जाता था । जीवंत यह प्रतिमा चक्र-पुरुष की है जो गुप्तयुगीन विचार स्वामी की गुप्तयुगीन दो प्रतिमायें बड़ौदा संग्रहालय17 में धारा है । इस प्रतिमा के दोनों ओर दो जिन पदमासन सुरक्षित हैं । राजकीय परिधान में होने से उनकी में बैठे हैं। मस्तक प्रभामण्डल से सुशोभित हैं । अन्य पहचान सरलता से हो जाती है। अकोठा18 से प्राप्त आलों में भी तीर्थकर प्रतिमायें हैं । शैली की दृष्टि से प्रथम तीर्थकर ऋषभनाथ की एक कांस्य प्रतिमा कला ये ई. चौथी सदी की ज्ञात होती है।
की दृष्टि से सुन्दर है । प्रतिमा नग्न है एवं उसके
मुर्तितल का पता नहीं है। प्रतिमा के अर्ध निमीलित गुप्तयुगीन बेसनगर (ग्वालियर संग्रहालय) से
नेत्र योग की ध्यानमुद्रा की ओर संकेत करते हैं। प्रतिमा प्राप्त एक प्रतिमा के प्रभामण्डल के दोनों ओर उड़ते
का काल 450 ई. ज्ञात होता है। हुए मालाधारी अंकित हैं । प्रभामण्डल कुषाण शैली का है । विवेच्य युगीन मथुरा संग्रहालय की दो प्रति छठवीं सदी के तृतीय चरण में पाण्डवंशियों ने मायें। शैली की दृष्टि से बनारस स्कूल के शिल्प की सरमपूरीय राजवंस को समाप्त कर दक्षिण कोशल को तरह हैं। सारनाथ से प्राप्त अजित नाथ की प्रतिमा का अपने अधिकार में कर श्रीपुर (सिरपुर, रायपुर जिला) डॉ. साहनी ने गुप्त संवत् 61 माना है, यह काशी को अपनी राजधानी बनाया। इस काल की पार्श्वनाथ की संग्रहालय में है । गुप्त नरेश कुमारगुप्त प्रथम के काल एक प्रतिमा" सिरपुर से उपलब्ध हुई । ध्यानावस्था में
12. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, चित्र फलक 6, क्रमांक 171 13. वही, आकृति 18।। 14. वही, चित्र फलक 10, आकति क्रमांक 241 15. वही, चित्र फलक 11, आकृति क्रमांक 25-261 16. इम्पीरियल गुप्त, आर. डी. बनर्जी, फलक 28 । 17. अकोठा बोन्ज-यू. पी. शाह, पृ. 26-28।। 18. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, फलक 8, आकृति 191 19. महत घासीराम स्मारक संग्रहालय रायपुर का सूची पत्र भाग 2, चित्र फलक 3 क।
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पद्मासनरूढ़ इस प्रतिमा के केश घुघराले एवं उष्णीष- कलचुरि कालीन तीर्थ कर प्रतिमायें आसन एव बद्ध हैं, कर्ण की लौंडी लम्बी एवं हृदय पर श्रीवत्स स्थानक मुद्रा में प्राप्त हुई है । कुछ संयुक्त प्रतिमाये चिन्ह अंकित है। उनका लांछन नाग तकिया के रूप भी उपलब्ध हुई हैं। तीर्थ करों में सर्वाधिक प्रतिमाये कुण्डली मारे बैठा है जिसके सातों फण उनके ऊपर तीर्थ कर ऋषमदेव की हैं। छत्र की भांति तने हुए हैं।
कलचुरि युगीन भगवान ऋषभनाथ की सर्वाधिक उत्तरगुप्तकाल में कला के अनेक केन्द्र थे। कला प्रतिमायें कारीतलाई से उपलब्ध हुई हैं । ये श्वेत तांत्रिक भावना से ओत-प्रोत थी। यद्यपि इस काल में बलुआ पाषाण से निर्मित हैं। सम्प्रति ये सभी प्रतिमाये कलाकारों का क्षेत्र विस्तत हो गया था परन्तु वे प्रतिमा रायपूर संग्रहालय में संरक्षित हैं । कारीतलाई के निर्माण में स्वतंत्र नहीं थे अपितु अपनी रचनाओं को अतिरिक्त तेवर (जबलपुर), मल्लार एवं रतनपुर शास्त्रीय नियमों के आधार पर ही रूप प्रदत्त करते थे। (बिलासपूर) आदि से भी आदिनाथ की प्रतिमाये बंधन के फलस्वरूप मध्ययुगीन जैन कला निष्प्राण सी उपलब्ध हुई हैं। तेवर से उपलब्ध, सम्प्रति जबलपुर के हो गई थी। इस काल की एक प्रमुख विशेषता जो हमें हनुमानताल जैन मंदिर में संरक्षित 7 फुट 4 इच परिलक्षित होती है, वह है-कला में चौबीस तीर्थकरों ऊंची ऋषभनाथ की प्रतिमा अतिकलापूर्ण एवं प्रभावो की यक्ष-यक्षिणी को स्थान प्रदान किया जाना। मध्य त्पादक हैं। प्रतिमा के अंग प्रत्यंग सुन्दर एवं सुडौल है कालीन जैन प्रतिमाओं में चौकी पर आठ ग्रहों की मस्तक पर धुघराले केश आकर्षक हैं । उभय स्कंध पर आकृति का अंकन है जो हिन्दुओं के नव-ग्रहों का ही केश गुच्छ लटक रहे हैं। अनुकरण है।
द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ की आसन मुद्रा में दो मध्यकाल में मध्यप्रदेश में जैन धर्म की प्रतिमायें बह एवं चन्द्रप्रभ, शांतिनाथ, नेमिनाथ की एक-एक मूर्ति लता से उपलब्ध होती हैं। मध्यप्रदेश के यशस्वी राज- प्राप्त हुई है। तीर्थ कर शांतिनाथ की एक आसन एक वंश, कलचुरि, परमारों एवं चंदेल नरेशों के काल में दो स्थानक मुद्रा में प्राप्त प्रतिमायें विशेष उल्लेखनीय उनकी धार्मिक सहिष्णुता के फलस्वरूप जैन धर्म भी हैं। बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ की एक सुन्दर प्रतिमा इस भू भाग में पुष्पित एवं पल्लवित हुआ । भारतीय धुबेला के संग्रहालय में संरक्षित हैं। विवेच्य युगीन जैन कला में मध्यप्रदेश का योगदान महत्वपूर्ण है। पार्श्वनाथ की प्रतिमायें सिंहपुर (शहडोल), पेन्ड्रा अखिल भारतीय परम्पराओं के साथ-साथ मध्यप्रदेश (बिलासपुर) कारीतलाई (जबलपुर) आदि से उपलब् की अपनी विशेषताओं को भी यहाँ की कला ने उचित हुई हैं। महावीर की आसन प्रतिमाओं में कारीतलाई स्थान दिया।
से उपलब्ध प्रतिमा महत्वपूर्ण है। महावीर की श्याम
20. कारीतलाई की अद्वितीय भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, अक्टूबर
दिसम्बर 19731 21. कलिचुरी कालीन भगवान शांतिनाथ की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त 1972 । 22. धुबेला संग्रहालय की जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण-जून 1974 ।
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बलुआ पाषाण निर्मित कायोत्सर्गासन की एक प्रतिमा मध्यप्रदेश के विश्व प्रसिद्ध कला तीर्थ खजुराहो में जबलपुर से उपलब्ध हुई थी जो सम्प्रति फिल्जेलफिया चन्देल नरेशों के काल में निर्मित नागर शैली के देवाम्यूजियम आफ आर्ट में संग्रहीत है । मूर्ति में अंकित लय वास्तु वैशिष्ट्य एवं मूर्ति संपदा के कारण गौरवसिंह के कारण यह महावीर की ज्ञात होती है।
शाली है। यहाँ के जैन मंदिरों में जिन मतियां प्रतिष्ठित
हैं और प्रवेश द्वार तथा रथिकाओं में विविध जैन विवेच्य आसन एवं स्थानक प्रतिमाओं के अतिरिक्त देवियाँ । देवालयों के ललाट बिब में चक्र श्वरी यक्षी तीर्थकरों की द्विमूर्तिकायें भी प्राप्त हुई हैं । ये भी प्रदर्शित है एवं द्वार शाखाओं तथा रथिकाओं में अधिस्थानक एवं आसन मुद्रा में हैं। कारीतलाई से प्राप्त कांशतः अन्य जैन देवी देवता जैसे जिनों, विद्याधरों द्विमतिका प्रतिमायें रायपुर संग्रहालय में संरक्षित हैं।
शासन देवताओं आदि की मूर्तियाँ हैं। वर्धमान की मां
ने जो सोलह स्वप्न देखे थे वे सब जैन देवालयों कलचुरियूगीन पाश्र्वनाथ एवं नेमिनाथ की एक
(पार्श्वनाथ को छोड़कर) के प्रवेश द्वार पर प्रदर्शित मूर्तिका सम्प्रति फिल्डेलफिया म्यूजियम ऑफ आर्ट में
हैं । जैन मूर्तियां प्रायः तीर्थंकरों की हैं, जिनमें से संरक्षित है । कृष्ण बादामी प्रस्तर से निर्मित दसवीं
- वृषम, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, पद्मप्रभु, शांतिनाथ सदी की इस द्विमूर्तिका में तीर्थ कर एक वट वृक्ष के
एवं महावीर की मूर्तियाँ अधिक हैं।30 नीचे कायोत्सर्गासन में है।
बुन्देलखण्ड के जैन तीर्थ अहार (टीकमगढ से 12 विवेच्ययुगीन जैन शासन- देवियों की मूर्तियाँ मील के प्राचीन देवालय में बाईस फुट के आकार की बहुतायत से प्राप्त हुई हैं । ये स्थानक एवं आसन दोनों
एक विशाल शिला है, इसी शिला पर अठारह फुट ऊँची तरह की है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि कलचुरि
भगवान शांतिनाथ की एक कलापूर्ण मूर्ति सुशोभित नरेशों के काल में निर्मित अधिकांश प्रतिमायें दसवीं
है। इसे परमादिदेव चन्देल के काल में संवत् 1237 एवं बारहवीं सदी के मध्य निर्मित हुई थीं । मूर्तियाँ वि. में स्थापित किया गया था। बायीं ओर की बारह शास्त्रीय नियमों पर आधारित हैं। उस मूर्ति कला पर ।
फुट की कुन्थुनाथ की मूर्ति भी सुन्दर है । गुप्तकालीन मूर्तिकला का प्रभाव अवश्य पड़ा है फिर भी कलचुरि कालीन जैन प्रतिमाओं में कुछ रूढ़ियों का प्रयाग नगरसभा के संग्रहालय में खजुराहो से दृढ़ता पूर्वक पालन किया गया है ।23
उपलब्ध 10 वीं सदी की निर्मित पार्श्वनाथ की एक 23. स्टैला केमरिच-इन्डियन स्कल्पचर इन द फिल्डेलफिया म्यूजियम आफ आर्ट, पृष्ठ 82 । 24. कारीतलाई की द्विमूर्तिका जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, सितम्बर 1975। 25. स्टला कमरिच-इन्डियन स्कल्पचर इन द फिल्डेलफिया म्यूजियम ऑफ आर्ट, पृ. 83 । 26. कलचुरी कला में जैन शासन देवियों की मूर्तियां-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अगस्त 1974 । 27. भारतीय जन शिल्प कला को कलचुरि नरेशों की देन, शिवकुमार नामदेव, जैन प्रचारक, सितम्बर
अक्टूबर 19741 28. भारतीय जैन कला को कलचुरि नरेशों का योगदान-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत-अगस्त 1974। 29. जन कला तीर्थ-खजुराहों-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, अक्टूबर 1974 । 30. खजुराहो की अद्वितीय जैन प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, फरवरी 19741 31. खण्डहरों का वैभव-मुनि कांतिसागर पृ. 246-47 ।
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विलक्षण प्रतिमा संग्रहीत है । जिनके समीकरण के जैन धर्म का आस्तित्व पूर्व मौर्यकाल से लेकर आद्याविषय में विद्वानों में मतैक्य है।
वधि निरंतर दृष्टिगोचर होता है।
प्रतिहारों के पतन के पश्चात मालवा में परमारों उत्तरप्रदेश में मध्यकालीन जैन प्रतिमायें बहलता का राज्य स्थापित हआ । इनके समय में जैन धर्म से प्राप्त हुई है जो इस प्रदेश के विभिन्न संग्रहालयों में मालवा में अपने स्वणिम काल में था। भोजपुर से तीन देवालयों एवं यत्र-तत्र अवस्थित है । उत्तर प्रदेश के मील आशापूरी नामक गांव में शांतिनाथ की परमार- अधिकांश स्थलों से उपलब्ध जैन प्रतिमायें प्रयाग संग्रहाकालीन प्रतिमा है। निमाड़ के मैदान में ऊन नामक के लय में हैं, यहाँ संग्रहीत ऋषभनाथ की चुनार पाषाण अवशेषों में लगभग एक दर्जन मन्दिर परमार राजाओं से निर्मित प्रतिमा उल्लेखनीय है। संग्रहालय में स्थित की स्थापत्य कला के उत्तम नमुने हैं। केन्द्रीय संग्रहालय हल्के हरे रंग के आकर्षक प्रस्तर पर चतुर्विशतिइंदौर में परमार युगीन तीर्थ करों की लेखयुक्त प्रति- पट्ट उत्कीर्ण है । प्रतिमाओं का अंग विन्यास स्वाभाविक मायें हैं।
है, यह 13वीं सदी की कृति है।
पूर्व मध्य एवं मध्यकाल में जैन कलाकृतियाँ नगर सभा संग्रहालय के उद्यान कूप के निकट एक मध्यप्रदेश के विभिन्न भूभागों से उपलब्ध होती हैं। छोटे से छप्पर में अम्बिका देबी उत्कीर्ण है। इसका मुरैना के सिंहोनिया, पढावली, गुना के तिराही एवं परिकर न केवल जैन शिल्प स्थापत्य कला का समुज्जइन्दौर, पन्ना के टूडा ग्राम, सिवनी में घंसौर एवं वल प्रतीक है, अपितु भारतीय शिल्प स्थापत्य कला में बरहटा, ग्वालियर के निकट मुरार, नागौद एवं जसो जनों की मौलिक देन है। प्रतिमा का काल 12-13वीं के अतिरिक्त दक्षिण कौशल के अनेकों स्थल जैन शिल्प सदी के मध्य का ज्ञात होता है। उत्तरप्रदेश के विभिन्न कला से भरे पड़े हैं। मालव भूमि के साँची, धार, स्थलों से जैन यक्षी पदमावती की प्रतिमायें उपलब्ध दशपुर, बदनावर, कानवन, बड़नगर, उज्जैन, जावरा, हई हैं। बड़वानी आदि ऐसे कला केन्द्र हैं, यहाँ ब्राह्मण धर्म की प्रतिमाओं के साथ-साथ जैन मतियाँ संरक्षित हैं।
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के खुरवन्दोग्राम
में भगवान महावीर की प्राचीन मूर्ति स्थापित है। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि अति झाँसी जिले के चंदेरी में भगवान महावीर की लावव्यप्राध्यकाल से ही मध्यप्रदेश के विभिन्न भूभागों में मयी प्रतिमा आभा से परिपूर्ण है । इसके अतिरिक्त
32. मध्यप्रदेश में जैन धर्म एवं कला-शिवकुमार नामदेव, सन्मति संदेश, अप्रैल-मई 19751 33. जैन धर्म एवं उज्जयिनी-शिवकुमार नामदेव, सन्मति वाणी, जुलाई 19751 34. भारतीय जैन कला को मध्यप्रदेश की देन--शिवकुमार नामदेव, सन्मति वाणी, मई-जून 19751 35. खण्डहरों का वैभब-मुनि कांति सागर, फ. 232 एवं आगे। 36. खण्डहरों का वैभव-मुनि कांतिसागर पृष्ठ 250-253 1 37. उत्तर भारत में जैन यक्षी पदमावती का प्रतिमा निरूपण-मारुतिनंदन प्रसाद तिवारी, अनेकांत
अगस्त 19741
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महावीर की प्रतिमायें इलाहाबाद में स्थित पफोसा, आदि में है। इनके अतिरिक्त जैन देवालय लकूण्डी देवगढ़ के मन्दिर क्रमांक 21 आदि में सुरक्षित हैं । (लोकिगुण्डी), बंकपुर, बेलगाम, हल्शी, बल्लिगबे,
जलगुण्ड आदि में हैं । ये देवालय विभिन्न देव प्रतिमाओं श्रावस्ती के पश्चिमी भाग में जैन अवशेष प्रचुर से विभषित हैं। इस काल की वहताकार प्रतिमाये मात्रा में मिलते हैं। यहीं पर भगवान संभवनाथ का
श्रावणबेलगोल, कार्कल एवं वेनूर में स्थापित है। जीर्ण-शीर्ण मन्दिर है । यहाँ पर अनेकों प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। जिला गोंडा के महंत से आदिनाथ की
कर्नाटक में पदमावती सर्वाधिक लोकप्रिय यक्षी एक सुन्दर प्रतिमा उपलब्ध हई है। पदमासन के नीचे रही हैं । यद्यपि पद्मावती का संप्रदाय काफी प्राचीन दो सिंह और वृषम हैं। आसन के नीचे कमल है जिस रहा है: परन्तु 10वीं शती के बाद के अभिलेखीय पर आदिनाथ पदमासन पर बैठे हैं। हदय पर धर्म साक्ष्यों में निरंतर पद्मावती का उल्लेख प्राप्त होता चक्र बना है । मस्तक के पीछे प्रभामण्डल एवं तीन है । कन्नड क्षेत्र में प्राप्त पार्श्वनाथ मूर्ति (10वींछत्रों वाला छत्र है। सभी ओर अनेक तीर्थकर 11वीं सदी) में एक सर्पफण से युक्त पदमावती की ध्यान मग्न हैं ।40 बरेली जिले के अहिच्छत्र से अनेकों दो भुजाओं में पदम एवं अभय प्रदर्शित है। कन्नड जैन प्रतिमायें उपलब्ध हुई हैं । यहां से उपलब्ध पार्श्व- शोध संस्थान संग्रहालय की पार्श्व मूर्ति में चतुर्भुज नाथ की एक सातिशय प्रतिमा हरित पन्ना की पद्मासन पद्मावती, पदम, पाश, गदा या अंकुश एवं फल धारण मुद्रा में विराजमान है । प्रतिमा अत्यन्त सौम्य एवं करती हैं । इसी संग्रहालय में चतुर्भुजी पद्मावती की प्रभावक है। मूर्ति के नीचे सिंहासन के पीठ के सामने ललितासन मुद्रा में दो स्वतन्त्र मूर्तियाँ हैं। बादामी की वाले भाग में 24 तीर्थकर प्रतिमायें उत्कीर्ण हैं। गुफा पाँच, के समक्ष की दीवार पर ललित मुद्रा में
आसीन चतुर्भुजी यक्षी आमूर्तित है । आसन के नीचे कर्नाटक में जैन धर्म का अस्तित्व प्रथम सदी ई. वाहन सम्भवतः हंस है। सर्पफणों से विहीन यक्षी के पू. से 11वीं सदी ई. तक ज्ञात होता है । होयशल करों में अभय, अंकुश पाश एवं फल प्रदर्शित हैं । पद्मा वंशी नरेश इस मत के प्रबल समर्थक थे । पूर्वकालीन वती की तीन चतुर्भुजी कर्नाटक से प्राप्त प्रतिमायें जैन देवालय एवं गुफायें ऐहोल, बादामी एवं पट्टडकल प्रिंस ऑफ वेल्स म्युजियम बम्बई में संरक्षित है ।
38. भारतीय पुरातत्व एवं कला में भगवान महावीर-शिवकुमार नामदेव, श्रमण, नवम्बर-दिसम्बर 19741 39. जैन तीर्थ श्रावस्ती-पं. बलभद्र जैन-अनेकांत, जूलाई-अगस्त 1973 । 40. भारतीय प्रतीक विद्या-जनार्दन मिश्र, चित्र संख्या 791 41. अहिच्छत्र-श्री बलिभद्र, जैन, अनेकांत, अक्टूबर-दिसम्बर 1973 । 42. जैनिज्म इन साउथ इन्डिया-देसाई, पी. वी. पृष्ठ 163।। 43. नोट्स ऑन टू जैन मेण्टल इमेजेज-हाडवे, डब्ल्यू एस, रूपम, अंक 17, जनवरी 1924, पृ. 48 । 44. गाइड टू द कन्नड रिसर्च इन्सटीट्यूट म्युझियम धारवाड़ -1958 पृ. 19 । 45. जैन यक्षाज ऐण्ड पक्षिणीज-सांकलिया, कलेटिन डेक्कन कॉलेज रिसर्च इन्स्टीट्यूट, खण्ड 9, 1940
पृष्ठ 1691 46. वही पृष्ठ 158-1591
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कर्नाटक में गोम्मट की अनेक मूर्तियाँ हैं । चालुक्यों श्री पद्मप्रभु स्वामी की प्रतिमा है। इसी स्थल के एक के काल में निर्मित ई. सन् 650 की गोम्मट की एक मदिर में ऋषभनाथ की पांच प्रतिमायें हैं। जिनमें दो प्रतिमा बीजापुर जिले के बादामी में है । तलकाडु के गंग चौबीस तीर्थकरों की प्रतिमा परिसर युक्त हैं। राजाओं के शासन काल में गंग राजा रायमल्ल सत्य
उड़ीसा की खण्ड गिरि की नवमुनि एवं बारभुजी वाक्य के सेनापति व मन्त्री चामुण्डराज द्वारा वेलगोल
गुफाओं (8वीं-9वीं सदी) के सामूहिक अंकनों में भी में ई. सन 982 में स्थापित विश्व प्रसिद्ध गोम्मट मूर्ति
पार्श्वनाथ के साथ पदमावती आमूतित है। नवमुनि है। गोम्मट गिरी में भी 14 फुट ऊँची एक गोम्मट
गृफाओं में पार्श्व के साथ उत्कीणित द्विभूजी यक्षी मूर्ति है । इसके अतिरिक्त होसकोटे हल्ली, कार्कल एवं
ललितमुद्रा में पदमासन पर विराजमान है । 40 बारभुजी वेणुर में पैतीस फुट ऊँची प्रतिमा है ।
गुफा में पार्श्व के साथ पांच सर्पफणों से मंडित अष्टभुजी बंगाल48 में जैन धर्म का आस्तित्व प्राचीन काल से पद्मावती है। पुरी जिले से उपलब्ध आदिनाथ की ही रहा है। यहाँ के धरापात के एक प्रतिमा विहीन एक स्थानक प्रतिमा इंडियन म्यूजियम कलकत्ता की देवालय के तीनों ओर के ताकों में विशाल प्रतिमायें निधि है। 60 विराजित थीं जिनमें पृष्ठ भाग वाली में ऋषमदेव,
तामिलनाडु से भी जैन धर्म से सम्बंधित अनेकों वामपक्ष से प्रदक्षिणा करते प्रथम शांतिनाथ और अन्त
प्रतिमायें उपलब्ध हई हैं। कलगुमलाई से चतुर्भुजी में तीसरे आले में जैनेतर मूर्तियाँ हैं। ये सम्भवतः 8वीं
षदमावती को ललित मुद्रा में (10 वीं-11 वीं सदी) सदी की हैं। बहुलारा नामक स्थल के एक मन्दिर के
मूर्ति प्राप्त हुई है। शीर्ष भाग में सर्पफण से मंडित सामने वेदी पर तीन प्रतिमायें हैं । मध्यवर्ती प्रतिमा
यक्षी, फल, सर्प, अंकुश एवं पाश धारण करती हैं । 1 भगवान पार्श्वनाथ की हैं जो अष्ट प्रतिहार्य और
मदुरा तामिलनाडु का महत्वपूर्ण नगर है। यहां पर धरणेन्द्र-पदमावती से युक्त है। भगवान पार्श्वनाथ की
जैन संस्कृति की गौरव गरिमा में अभिवद्धि करने वाली प्रतिमा के निम्न भाग में धरणेन्द्र-पदमावती है और
कलात्मक सामग्री का प्रचुर परिमाण विद्यमान हैं। मति निर्माणक दम्पत्ति भी है। बांकुडा जिले के ही हाडमासरा ग्राम के जंगल में एक पार्श्वनाथ प्रतिमा है। बिहार प्रदेश से उपलब्ध अनेकों प्रतिमायें पटना अंबिकानगर में स्थित अंबिका देवी के मंदिर के पृष्ठ संग्रहालय में संरक्षित हैं। संग्रहालय में चौसा के भाग में अवस्थित एक जैन मदिर में सपरिकर ऋषभ- शाहाबाद से प्राप्त जैन धातु मूर्तियां सुरक्षित हैं । नाथ की प्रतिमा है। पाकबेडरा में अनेकों प्रतिमायें ऋषभनाथ की प्रतिमा कायोत्सर्ग स्थिति में कंधे पर संरक्षित हैं। इनमें 7 फुट ऊँची खड़गासन स्थित बिखरे बाल तथा लंबी भुजाओं के साथ बनाई गई थीं।
47. कर्नाटक की गोम्मट मूर्तियां-आचार्य पं. के. भुजबल शास्त्री, अनेकांत, अगस्त 1972 । 48. बंगाल के जैन पुरातत्व की शोध में पांच दिन-भंवरलाल नाहटा, अनेकांत, जुलाई-अगस्त 19731 49 शासन देवीज इन द खण्डगिरि केबस-मित्रा देवल, जर्नल एशियाटिक सोसायटी (बंगाल) खण्ट ।
अंक 2, 1959, 4.-139। 50. स्टेडीज इन जैन आर्ट-यू. पी. शाह, आकृति 36 । 51. जैनिज्म इन साउथ इन्डिया-पी. बी. देसाई, प. 651
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पार्श्वनाथ की धातु प्रतिमा कायोत्सर्ग तथा पीछे सर्प फण के साथ है । यहां से उपलब्ध धातु प्रतिमायें कमलासन पर खड़ी हैं । राजग्रह निवासी कन्हैयालालजी श्रीमाल के संग्रह में एक प्रस्तर पट्टिका है । इसके निम्न भाग में महाबीर की प्रतिमा है । ऊपर के एक भाग में भाव शिल्प है जिसका सम्बन्ध महावीर से ज्ञात होता
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नालंदा से उपलब्ध एवं नालंदा संग्रहालय में संरक्षित ललित मुद्रा में पद्म पर विराजमान चतुर्भुजी देवी के मस्तक पर पांच सर्पफण प्रदर्शित हैं । देवी की भुजाओं में फल, खड़ग, परशु एवं चिनमुद्रा में पदमासन का स्पर्श करती देवी की भुजा में पद्म नालिका भी स्थित है । 3 केवल सर्पफण से ही इसका समीकरण पदमावती से करना उचित नहीं है ।
राजस्थान के ओसिया 54 नामक स्थल में महावीर का एक प्राचीन मंदिर है । यह 9 वीं सदी की रचना है । मंदिर में विराजमान महावीर की एक विशालकाय मूर्ति है । इसी स्थल से पार्श्वनाथ की एक धातु प्रतिमा उपलब्ध हुई थी जो सम्प्रति कलकत्ता के एक मंदिर में है । इस देवालय के मुखमण्डल के ऊपरी छज्जे पर पद्मावती की प्रतिमा उत्कीर्ण है । कुक्कुट - सर्प पर विराजमान द्विभुज यक्षी की दाहिनी भुजा में सर्प और arat में फल स्थित है । स्पष्ट है कि पद्मावती के साथ 8वीं सदी में ही वाहन कुक्कुट सर्प एवं भुजा में सर्प को सम्बद्ध किया जा चुका था ।
ग्यारवीं सदी की एक अष्टभुज पद्मावती की प्रतिमा राजस्थान के अलवर जिले में स्थित झालरपाट्टन
के जैन मंदिर की दक्षिणी वेदिका बंध पर उत्कीर्ण है । ललित मुद्रा में मट्टासन पर विराजमान यक्षी की भुजाओं में वरद, वज्र, पद्मकलिका, कृपाण, खेटक, घण्ट एवं फल प्रदर्शित है ।
विमलशाह गुजरात के प्रतापी नरेश भीमदेव के मंत्री थे । इन्होंने ग्यारहवीं सदी में विमलवसही का निर्माण कराया था । इसके गुढ़मण्डप के दक्षिणी द्वार पर चतुर्भुजी पद्मावती की आकृति उत्कीर्ण है । विमलवसही की देवकुलिका 49 के मण्डप वितान पर उत्कीर्ण षोडशभुजी देवी की सम्भावित पहचान महाविद्या वैरोट्या एवं यक्षीं पद्मावती दोनों ही से की जा सकती है । सर्प के सप्तकणों का मण्डन जहां देवी पद्मावती की पहचान का समीकरण करता है, वहीं कुक्कुट सर्प के स्थान पर वाहन के रूप में नाग का चित्रण एवं भुजाओं में सर्प का प्रदर्शन महाविद्या वैद्या से पहचान का आधार प्रस्तुत करता है ।
जयपुर के निकट चांदनगांव एक अतिशय क्षेत्र है । "यहां महावीर जी के विशाल मंदिर में महावीर की भव्य सुन्दर मूर्ति है । जोधपुर के निकट गॉधाणी तीर्थ में भगवान ऋषभदेव की धातु मूर्ति 937 ई. को है । बूंदी "" से 20 वर्ष पहले कुछ प्रतिमायें प्राप्त हुई थीं । उनमें से तीन अहिच्छत्र ले जाकर स्थापित की गई हैं। तीनों का रंग हल्का कत्थई है, एयं तीनों शिलापट्ट पर उत्कीर्ण हैं । एक पर पार्श्वनाथ उत्कीर्ण हैं |
चौहान जाति की एक उप-शाखा देवड़ा के शासकों की भूतपूर्व राजधानी सिरोही की भौगोलिक सीमाओं में स्थित देलवाडा के हिन्दू एवं जैन मंदिर प्रसिद्ध हैं ।
52, खण्डहरों का वैभव - मुनि कांतिसागर, पृ. 126 ।
53. आर्कियालाजीकल सर्वे आफ इन्डिया, ऐनुअल रिपोर्ट 1930-34, भाग 2, फलक 68, चित्र बी । 54. ओसिया का प्राचीन महावीर मन्दिर - अगरचन्द जैन नाहटा, अनेकांत, मई 1974
55. खण्डहरों का वैभव - मुनि कांतिसागर - पृ. 71 ।
56. अहिच्छत्र - श्री बलिभद्र जैन, अनेकांत, अक्टूबर-दिसम्बर 1973 ।
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________________ दिलवाडा के पांच जैन मन्दिर श्वेत सगमरमर से निर्मित प्रतिमायें हैं। रचना शेली की दृष्टि से ये 13वीं सदी है। विमलशाह का मन्दिर जिसका निर्माण 1030 ई. की ज्ञात होती हैं। में तथा वस्तुपाल एवं तेजपाल के मन्दिर 1231 ई. में बनवाये गये थे। विमलशाह के मन्दिर में जैन तीर्थ कर गजरात जैन शिल्पकला की दष्टि से समद्ध राज्य आदिनाथ और अन्य दो मंदिरों में नेमिनाथ जी की है। गुजरात के चालुक्य राजाओं के काल में अनेक मतियाँ हैं। सादड़ी से 14 मील दूर अरावली की जेन मदिरों का निर्माण हुआ। गुजरात के बनासकांठा पहाड़ी टेकड़ी में राणापुर (राणापुर) के मंदिरों में जिले में स्थित कुमारिया 57 एक प्राचीन जैन तीर्थ है / नेमीनाथ, आदिनाथ एवं पार्श्वनाथ के मन्दिर प्रमुख हैं। यहां पांच श्वेताम्बरीय, श्वेत संगमरमर से निर्मित जैन यहां के आदिनाथ मन्दिर में ऋषभदेब की विशाल मंदिर हैं। इनमें महावीर का मंदिर सबसे प्राचीन एवं पदमासन मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ एवं आकर्षक है कुल भव्य है। मूलनायक के अतिरिक्त गूटमंडप में परिकर मिलाकर वेदियों में 425 मूर्तियां हैं। इसी प्रकार नेमि- युक्त दो अन्य कायोत्सर्गासन की प्रतिमायें हैं। कलापूर्ण नाथ एवं पार्श्वनाथ मन्दिर में अनेकों जैन प्रतिमायें हैं। कोरणीयुक्त रंग मडप के दूसरे भागों की छत में आबू के विमलवराही जैसे जैन चरित्रों के विभिन्न द्रश्य है। महाराष्ट्र प्रदेश में भी जैन प्रतिमायें बहुसंख्या में गढ़ मण्डप में दो विशाल कायोत्गर्ग मूर्तियाँ-शांतिनाथ उपलब्ध होती हैं। दिगंबर केन्द्र एलोरा (9वीं सदी) एवं अजितनाथ की हैं / श्वेताम्बर परंपरा का निर्वाह की गुफायें तीर्थ कर प्रतिमाओं से भरी पड़ी हैं / छोटा करने वाली बारहवीं सदी की दो चतुर्भुज पदमावती कैलास गहा संख्या 30) में ऋषभनाथ, पार्श्वनाथ तथा की प्रतिमायें कूमारिया के नेमिनाथ मन्दिर की पश्चिमी महाबीर की बैठी पाषाण मूर्तियां पदमासन एवं ध्यान देवकुलिका की वाह्य भिति पर उत्कीर्ण है / 8 गुजरात मदा में है। प्रत्येक तीर्थकर के पावं में चांवर धारण के अन्य मन्दिरों में शांतिनाथ, कुभेश्वर, संभवनाथ किये यक्ष तथा गंधर्व हैं। ऋषभनाथ के कंधे पर केश आदि मुख्य हैं / गुजरात के बडनगर में चालुक्य नरेश विखरे हैं। पाश्वनाथ के सिर पर सात सर्पफण हैं / मूलराज (642-997 ई.) के काल का आदिनाथ सिहासन पर बैठे महावीर की प्रतिमा के ऊपरी भाग में मन्बिर है / मन्दिर के देवकूलिकाओं में आदिनाथ की छत्रदीख पडता है। एलोरा की 30 से 34 क्रमांक यक्षयक्षिणी अंकित हैं / यहीं पर चक्र श्वरी की भी तक की गुफायें जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। इन्द्रसभा प्रतिमा है। गुका (संख्या 33) की उत्तरीय दीवार पर पार्श्वनाथ, दक्षिण पार्श्व में गोम्मटेश्वर-बाहवलि के अतिरिक्त उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि महावीर एवं अन्य तीर्थकर मूर्तियां हैं। जगन्नाथ गुफा भारतीय शिल्पकला के विकास में जैन शिल्पकला के बराण्डा में पाश्र्वनाथ तथा महावीर के अतिरिक्त का भी महत्वपूर्ण स्थान है। भारत की प्राचीन संस्कृति स्तर पर चौबीस तीर्थकरों की छोटी-छोटी मूर्तियां को जानने के लिये जैन शिल्पकला का अध्ययन हैं। एलोरा की एक गुफा में अंबिका की मानव कद आवश्यक है। भिन्न-भिन्न कालों और ढंगों पर बनी प्रतिमा है। मूर्तियों से मूनिकला के विकास पर गहरा प्रकाश पड़ता है। ये इसके अतिरिक्त विभिन्न कालीन योगियों के आसन अंकाई-तंकाई में जैनों की सात गुफाये हैं। ये छोटी मुद्रा, केश और प्रतिहार्यों पर भी काफी प्रकाश डालती होते हा भी शिल्प कलापेक्षया अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। हैं। इन मूर्तियों के अध्ययन से भारतीय लोगों की तीसरी गफा के छोर पर इन्द्र और इन्द्राणी हैं। इसके वेशभूषा आदि का ज्ञान होता है / अतिरिक्त शांतिनाथ, पार्श्वनाथ एवं गवाक्ष में जिन 57. भारिया का महावीर मन्दिर-श्री हरीहरसिंह, श्रमण, नवम्बर-दिसम्बर 1974, कुभारिया का कला / पूर्ण महावीर मन्दिर-श्री अगरचन्द नाहटा, श्रमण अप्रैल 19741 58. ब्रीफ सर्वे आफ द आइकनोग्राफिक डैटा एट भारिया-नार्थ गुजरात, सम्बोधि, खण्ड 2, अक 1, अप्रैल 1973, पृ. 131 162