Book Title: Bharatiya Shilpkala ke Vikas me Jain Shilpkala ka Yogadan
Author(s): Shivkumar Namdev
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 1
________________ भारतीय शिल्पकला के विकास में जैन शिल्पकला का योगदान भारत की प्राच्य संस्कृति के लिए जहाँ जैन साहित्य का अध्ययन आवश्यक है, वहीं जैन कला के अध्ययन का भी कुछ कम महत्व नहीं है । जेन कला अपनी कुछ विशिष्ट विशेषताओं के कारण भारतीय कला में अपना विशिष्ट महत्व रखती । जैन धर्म की स्वर्णिम - गौरव गरिमा को प्रतीक प्रतिमाएँ, पुरातन मंदिर, विशाल स्तंभादि प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के ज्वलंत निदर्शन हैं । अतीत इनमें अंतर्निहित है । सम्बता एवं संस्कृति की रक्षा एवं अभिवृद्धि में साहित्यकार जहाँ लेखनी के माध्यम से समाज में अपने भावों को व्यक्त करता हैं, वहीं कलाकार पार्थिव उपादानों के माध्यम द्वारा आत्मस्थ भावों को अपनी सधी हुई छैनी से व्यक्त करता है । मूर्तिकला के क्षेत्र में जैनकला ने अर्हन्तों की अगणित कायोत्सर्ग एवं पद्मासन ध्यान मग्न मूर्तियों का निर्माण किया है जो पाषाण से लेकर मूंगा, हीरा, Jain Education International पुखराज, नीलम आदि से निर्मित है । मामूली ताँबा, पीतल से लेकर रजत, स्वर्ण जैसी बहुमूल्य धातुओं से निर्मित आकार में छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी जैन धर्म की इन प्रतिमाओं में कितनी ही तो चतुर्मुख एवं कितनी ही सर्वतोभद्र हैं । जैन पुरातत्व की प्रमुख वस्तु प्रतिमा है । भारत के विभिन्न भूभागों में जैन मूर्तियों की उपलब्धि होती रहती है, जिनकी मौलिक मुद्रा एक होते हुए भी परिकर में प्रांतीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । मुखाकृति पर भी असर होता है । डा० शिवकुमार नामदेव जैन मत में मूर्तिपूजा की प्राचीनता एवं विकास का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है । जैन मत दो प्रमुख पंथ श्वेतांबर एवं दिगम्बर में विभाजित है । श्वेतांबर सदैव ही अपनी प्रतिमाओं को वस्त्राभूषण आदि से सुसज्जित रखते थे । ये पुष्पादि द्रव्यों का प्रयोग करते हैं तथा अपने देवालयों में दीपक भी नहीं जलाते । दिगम्बर मूर्तियाँ नग्न रहतीं थीं । 1. जैन मत में मूर्ति पूजा की प्राचीनता एवं विकास- शिवकुमार नामदेव, अनेकांत, मई 1974 १८१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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