Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 440
________________ 438 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन सन्तुलन के भंग का इतना महत्वपूर्ण एवं निकटवर्ती कारण नहीं है। जैन, बौद्ध और गीता की विचारणाओं में वातावरण के ऊपर व्यक्ति की सर्वोपरिता स्वीकृत है। वातावरण के तथ्य उसी अवस्था में व्यक्ति के अन्दर इस सन्तुलन का विचलन उत्पन्न कर सकते हैं, जब व्यक्ति स्वयं वैसा चाहे। वस्तुएँ राग और द्वेष का निमित्त-कारण हो सकती हैं, लेकिन उसमें राग और द्वेष का कर्ता तो व्यक्ति स्वयं है। जीवन के संतुलन को भंग करने में वातावरण का उदासीन कारण अवश्य है, लेकिन वास्तविक कारण तो व्यक्ति स्वयं ही है, अत: भारतीय-आचारदर्शनों में नैतिक-जीवन का कार्य उस आंतरिक-संतुलन की स्थापना है। भारतीय आचार-दर्शनों में नैतिक-जीवन का प्रमुख कार्य वातावरण और व्यक्ति के मध्य समायोजन बनाना नहीं, वरन् व्यक्ति के आन्तरिक-जीवन में, उसके मन और बुद्धि में इस संतुलन को बनाए रखना है। नैतिकता के क्षेत्र में आने वाला व्यक्ति का व्यवहार तो उसके विचारों का, उसके मानस का बाह्य प्रकटीकरण मात्र है, अत: आवश्यकता तो मानसिक-संतुलन की ही है। भारतीय-चिन्तन, विशेषकर जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार-दर्शन यह स्वीकार करते हैं कि नैतिक-जीवन एक समायोजनपूर्ण, समरूप एवं संतुलित जीवन है; जिसका केन्द्र हमारे व्यक्तित्व के अन्दर है। यह आत्म-केन्द्रित समत्वपूर्ण जीवन ही नैतिक परम साध्य है और नैतिकता एक कला के रूप में हमें वैसा जीवन जीना सिखाती है, जैसाकि हम देख चुके हैं। भारतीय आचार-दर्शन हमें न केवल यह बताते हैं कि हमारे जीवन का आदर्श क्या है, वरन् यह भी बताते हैं कि इस आदर्श की उपलब्धि कैसे हो सकती है। ___ संक्षेप में, भारतीय आचार-दर्शनों के अनुसार जीवन काशभत्व समत्व में निहित है। समत्वपूर्ण जीवनही आदर्शजीवन है। पूर्ण समत्व की यह अवस्थाजैनधर्म में वीतरागदशा के नाम से जानी जाती है। गीता इसी पूर्ण समत्व की स्थिति को स्थितप्रज्ञता कहती है, जबकि बौद्ध-दर्शन में इसे ही अर्हतावस्थाकहा जाता है। जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों में जीवन का आदर्श यह आध्यात्मिक-समत्व है और नैतिक-जीवन इस आदर्श को आत्मसात् करने की प्रक्रिया है। जिस प्रकार के जीवन-व्यवहार में यह समत्व बना रह सकता है, वही व्यवहार नैतिक है। नैतिकता इस समत्व के संस्थापन की कला है। गीता में इसी कला को समत्व-योग कहा गया है। जैन-दर्शन इसे सामाजिक-साधना के नाम से अभिहित करता है और बौद्ध-दर्शन में उसे सम्यक्-समाधि कहा जाता है। भारतीय आचारदर्शन जीवन के व्यवहार-पक्ष को उपेक्षित कर किसी आध्यात्मिक या नैतिक-आदर्श की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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