Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 476
________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन - जीवात्मा- दोनों एक ही हैं। उनमें न तो अंश और पूर्ण का सम्बन्ध है और न आधार और आधारित का सम्बन्ध है। गीता में नैतिक - साध्य के रूप में स्वीकृत परमात्मा प्रत्येक साधक वही है, जबकि जैन-दर्शन में प्रत्येक साधक का साध्य - परमात्मा तात्त्विक सत्ता की दृष्टि से भिन्न-भिन्न है। गीता का परमात्मा एक ही है, जबकि जैन- दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा परमात्मा है । इन दार्शनिक सामान्य अन्तरों के होते हुए भी जहाँ तक नैतिक-साध्य के रूप में परमात्मा की स्वीकृति का प्रश्न है, दोनों के दृष्टिकोण समान हैं। दोनों के अनुसार परमात्मा पूर्णता की अवस्था है और वही पूर्णता नैतिक जीवन का साध्य है। साधना के आदर्श की दृष्टि से दोनों में परमात्मा का स्वरूप वही माना गया है। पूर्ण वीतराग, निष्काम, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् परमात्मा गीता का नैतिक आदर्श है, तो वही वीतराग, अनन्त - ज्ञान, अनन्त- - दर्शन, अनन्तसौख्य और अनन्तशक्ति से युक्त परमात्मा जैन दर्शन की नैतिक-साधना का आदर्श है। - 474 - जहाँ तक बौद्ध दर्शन में नैतिक-साध्य के रूप में, अथवा नैतिक आदर्श के रूप में परमात्मा अथवा ईश्वर के प्रत्यय का प्रश्न है, उसमें हीनयान और महायान सम्प्रदायों में साधना के अलग-अलग आदर्श रहे हैं। हीनयान का नैतिक-साध्य अर्हतावस्था रहा है, जबकि महायान की नैतिक-साधना में उपास्य या नैतिक - साध्य के रूप में बुद्ध का स्वाभाविककाय या धर्मकाय स्वीकृत रहा है। फिर भी, सामान्य रूप से हम यह कह सकते हैं कि बुद्धत्व की प्राप्ति दोनों में ही नैतिक - साध्य है और बुद्ध परमात्मा के रूप में नैतिकजीवन के आदर्श हैं। अर्हत् के आदर्श के रूप में हीनयान सम्प्रदाय में जिस बुद्धत्व के प्रत्यय को स्वीकार किया गया है, वह जैन- परम्परा के निकट है, लेकिन महायान में स्वीकृत धर्मकाय या स्वाभाविककाय के प्रत्यय गीता के निकट आते हैं। धर्मकाय गीता के वैयक्तिक - ईश्वर के समान ही है। महायान-सम्प्रदाय में बुद्ध का चार व्यूहों के रूप में निरूपण है। प्रत्येक व्यूह को पारिभाषिक - भाषा में काय कहते हैं। बुद्ध के चार काय माने गए हैं- 1. स्वाभाविककाय, 2. धर्मकाय, 3. सम्भोगकाय और 4. निर्माणकाय । 14 1. स्वाभाविककाय - स्वाभाविककाय निरास्रव विशुद्धि प्राप्त धर्मों की प्रकृति है। इसे गीता के परमब्रह्म के समान माना जा सकता है। यह अकारित्र है । जिस प्रकार ब्रह्म निर्विशेष एवं निरपेक्ष है, उसी प्रकार यह भी निर्विशेष है। 2. धर्मकाय - धर्मकाय भी परिशुद्ध धर्मों की प्रकृति है । स्वाभाविककाय से यह इस अर्थ में भिन्न है कि यह सकारित्र है। धर्मकाय सर्वदा सर्वभूतहितरत है, यद्यपि इसे भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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