Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 546
________________ 544. भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन प्रशस्त और असंक्लिष्ट कहा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि कृष्ण, नील एवं कापोत अधर्म-लेश्याएँ हैं और इनके कारण जीवदुर्गति में जाता है और तेजो, पद्म एवं शक्लधर्म-लेश्याएँ हैं और इनके कारण जीवसुगति में जाता है। पं. सुखलालजी लिखते हैं कि कृष्ण और शुक्ल के बीच की लेश्याएँ विचारगत अशुभता और शुभता का विविध मिश्रण-मात्र हैं। जैन-दृष्टि के अनुसार धर्म-लेश्याएँ या प्रशस्त-लेश्याएँ मोक्ष का हेतु तो होती हैं एवं जीवन्मुक्त अवस्था तक विद्यमान भी रहती हैं, लेकिन विदेहमुक्ति उसी अवस्था में होती है, जब प्राणी इनसे भी ऊपर उठ जाता है, इसीलिए यहाँ यह कहा गया है कि धर्म-लेश्याएँ सुगति का कारण हैं।। जैन-विचारणा विवेचना के क्षेत्र में विश्लेषणात्मक अधिकरही है, अतएव वर्गीकरण करने की स्थिति में भी उसने काफी गहराई तक जाने की कोशिश की और इसी आधार पर यहषट्विध विवेचन किया, लेकिन तथ्य यह है कि गुणात्मक-अन्तर के आधार पर तो दोही भेद होते हैं, शेष वर्गीकरण मात्रात्मक ही है और इस प्रकार यदि मूल आधारों की ओर दृष्टि रखें, तो जैन और गीता की विचारणा को अतिनिकट ही पाते हैं। जहाँ तक जैन-दर्शन की धर्म और अधर्म-लेश्याओं में और गीता की दैवी और आसुरी-सम्पदा में प्राणी की मन:स्थिति एवं आचरण का जो चित्रण किया है, उसमें बहुत-कुछ शब्द एवं भाव-साम्य धर्म-लेश्याओं में प्राणी की मनःस्थिति दैवी-सम्पदासे युक्त प्राणी की एवं चरित्र (उत्तराध्ययन के आधार पर)। मन:स्थिति एवं चरित्र जैन-दृष्टिकोण गीता का दृष्टिकोण 1. प्रशांत चित्त शांतचित्त एवं स्वच्छ अन्त:करण वाला 2. ज्ञान, ध्यान और तन में रत तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान में निरन्तर दृढ़ स्थिति 3. इन्द्रियों को वश में रखने वाला इन्द्रियों का दमन करने वाला 4. स्वाध्यायी स्वाध्यायी, दानी एवं उत्तम कर्म करने वाला 5. हितैषी अहिंसायुक्त, दयाशील तथा अभय 6. क्रोध की न्यूनता अक्रोधी, क्षमाशील 7. मान, माया और लोभ का त्यागी त्यागी 8. अल्पभाषी अपिगुनी तथा सत्यशील 9. इन्द्रिय और मन पर अधिकार रखने । अलोलुप (इन्द्रिय-विषयों में अनासक्त) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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