Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 544
________________ 542 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अवस्था में वर्तमान रहते हैं, लेकिन उनकी विशुद्धि की मात्रा अधिक होती है। प्राणी उपशांत, जितेन्द्रिय एवं प्रसन्नचित्त होता है। उसके जीवन का व्यवहार इतना मृदु होता है कि वह अपने हित के लिए दूसरे को तनिक भी कष्ट नहीं देना चाहता है , मन-वचन-कर्म से एकरूप होता है तथा उन पर उसका पूर्ण नियंत्रण होता है। उसे मात्र अपने आदर्श का बोध रहता है। बिना किसी अपेक्षा के वह मात्र स्वकर्त्तव्य के परिपालन में सदैव जागरूक रहता है। सदैव स्वधर्म एवं स्वस्वरूप में निमग्न रहता है। लेश्या-सिद्धान्त और बौद्ध-विचारणा- भारत में गुण-कर्म के आधार पर यह वर्गीकरण करने की परम्परा अत्यन्त प्राचीन प्रतीत होती है। यह वर्गीकरण सामाजिक एवं नैतिक-दोनों दृष्टिकोणों से किया जाता रहा है। सामाजिक-दृष्टि से इसने चातुर्वर्ण्य के सिद्धान्त का रूप ग्रहण किया था, जिस पर जन्मना और कर्मणा-दृष्टिकोणों को लेकर श्रमण और वैदिक-परम्परा में काफी विवाद भी रहा है। यहाँ हम इस गुण-कर्म के आधार पर विशद्ध नैतिक-दृष्टिकोण के वर्गीकरण की ही चर्चा करेंगे। नैतिक-दृष्टिकोण से गुण-कर्म के आधार पर वर्गीकरण करने का प्रयास न केवल जैन, बौद्ध और गीता की परम्परा ने किया है, वरन् अन्य श्रमण-परम्पराओं में भी ऐसे वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। दीघनिकाय में आजीवक-सम्प्रदाय के आचार्य मंखलिपुत्र गोशालक एवं अंगुत्तरनिकाय में पूर्ण कश्यपके नाम के साथ इस वर्गीकरण का निर्देश है। इनकी मान्यता के अनुसार कृष्ण, नील, लोहित, हरिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल-ये छह अभिजातियाँ हैं। उक्त वर्गीकरण में कृष्ण-अभिजाति में आजीवक-सम्प्रदाय से इतर सम्प्रदायों के गृहस्थ को, नील-अभिजाति में निर्ग्रन्थ और आजीवक श्रमणों के अतिरिक्त अन्य श्रमणों को, लोहित-अभिजाति में निर्ग्रन्थ श्रमणों को, हरिद्र-अभिजाति में आजीवक गृहस्थों को, शुक्ल-अभिजाति में आजीवक श्रमणों को और परमशुक्ल-अभिजाति में गोशालक आदिआजीवक-सम्प्रदाय के प्रणेता वर्ग को रखा गया है। उपर्युक्त वर्गीकरण का जैन-विचारणा से बहुत-कुछ शब्द-साम्य है, लेकिन जैन-दृष्टि से यह वर्गीकरण इस अर्थ में भिन्न है कि एक तो यह केवल मानव-जति तक सीमित है, जबकि जैन-वर्गीकरण इसमें सम्पूर्ण प्राणी-वर्ग का समावेश करता । दूसरे, जैन-दृष्टिकोण व्यक्तिपरक है, जो साम्प्रदायिकता से ऊपर उठकर यही काता है कि प्रत्येक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह अपने गुण-कर्म के आधार पर किसी भी वर्ग या अभिजाति में सम्मिलित हो जाता है। यहाँ यह विशेष दृष्टव्य है कि जहाँ गोशालक द्वारा सरे श्रम को नील-अभिजाति में रखा गया, वहाँ निर्ग्रन्थों को लोहित-अभिजाति में खना उनके प्रति कुछ समादर-भाव का द्योतक अवश्य है। सम्भव है, महावीर एवं शालक का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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