Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 502
________________ 500 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन जिस परिवेश में रहता है, उसमें इन्द्रियों को अपने विषयों से सम्पर्क रखना ही पड़ता है, जैसे-आँख के समक्ष उसका विषय प्रस्तुत होने पर वह उसे देखने से वंचित नहीं रख सकता। भोजन करते समय आस्वाद को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इन्द्रिय-व्यापार का निरोध असम्भव तथ्य है। यदि इन्द्रिय-व्यापारों का पूर्ण निरोध सम्भव नहीं, तो फिर इन्द्रिय-संयम का क्या अर्थ है ? इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक है। जैन-दर्शन में इन्द्रिय-दमन- जैन-दर्शन के अनुसार इन्द्रिय-व्यापारों के निरोध का अर्थ इन्द्रियों को अपने विषयों से विमुख करना नहीं, वरन् विषय-सेवन के मूल में निहित राग-द्वेष का समाप्त करना है। इस विषय पर आचारांगसूत्र में सुन्दर एवं मनोवैज्ञानिकदृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएं अत: शब्दों का नहीं, शब्द के प्रति जाग्रत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि नाक के समक्ष आई हुई सुगन्धि या दुर्गन्धि सूंघने में न आए, अत: गंध का नहीं, गंधके प्रति जगने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि रसना पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आए, अत: रस का नहीं, रस के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि शरीर से स्पर्श होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति नहो, अतः स्पर्श का नहीं, स्पर्श के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। जैन-दार्शनिक कहते हैं कि इन्द्रियों के शब्दादिमनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय-आसक्त व्यक्ति के लिए ही रागद्वेष के कारण बनते हैं, वीतराग के लिए नहीं। इन्द्रियों और मन के विषय, रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं। ये विषय वीतरागियों के बन्धन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। काम-भोग न किसी को बन्धन में डालते हैं और न किसी में विकार ही पैदा कर सकते हैं, किन्तु जो विषय में राग-द्वेष करता है, वही राग-द्वेष से विकृत होता है।86 बौद्ध-दर्शन में इन्द्रिय-दमन- इस विषय में बौद्ध आचार-परम्परा का दृष्टिकोण भी जैन-परम्परा और गीता के समान ही है। संयुत्तनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि न चक्षु रूपों का बन्धन है और न रूप ही चक्षु का बन्धन है, किंतु जो जहाँ दोनों के निमित्त से छन्द (राग) उत्पन्न है, वस्तुत: वही बन्धन है। 7 ज्ञानी साधक के देखने में देखना भर होगा, सुनने में सुननाभर होगा, जानने में जानना भर होगा, अर्थात् वह रूपादिका ज्ञाता-दृष्टा होगा, उनमें रागासक्त नहीं होगा। अप्रमत्त साधक रूप आदि में राग नहीं करता; रूपों को देखकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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