Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 522
________________ 520 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन का अभाव होता है। यह चित्त पूरी तरह बहिर्मुखी होता है। 2. यातायात-मन- यातायात मन कभी बाह्य-विषयों की ओर जाता है, तो कभी अन्दर स्थित होने का प्रयत्न करता है। यह योगाभ्यास के प्रारम्भ की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त अपने पूर्वाभ्यास के कारण बाहरी विषयों की ओर दौड़ता रहता है, वैसे थोड़े-बहुत प्रयत्न से उसे स्थित कर लिया जाता है। कुछ समय उस पर स्थिर रहकर पुन: बाह्य-विषयों के संकल्प-विकल्प में उलझ जाता है। जब-जब कुछ स्थिर होता है, तब मानसिक-शान्ति एवं आनन्द का अनुभव करने लगता है। यातायात-चित्त कथंचित्अन्तर्मुखी और कथंचित्-बर्हिमुखी होता है। 3. श्लिष्टमन- यह मन की स्थिरता की अवस्था है। इस अवस्था में चित्त की स्थिरता का आधार या आलम्बन प्रशस्त-विषय होता है। इसमें जैसे-जैसे स्थिरता आती है, आनन्द भी बढ़ता जाता है। 4.सुलीन-मन- यह मन की वह अवस्था है, जिसमें संकल्प-विकल्प एवं मानसिक -वृत्तियों का लय हो जाता है। इसे मन की निरुद्धावस्था भी कहा जा सकता है। यह परमानन्द की अवस्था है, क्योंकि इसमें सभी वासनाओं का विलय हो जाता है। बौद्ध-दर्शन में चित्त की चार अवस्थाएँ- अभिधम्मत्थसंगहो के अनुसार बौद्धदर्शन में भी चित्त चार प्रकार का है- 1. कामावचर, 2. रूपावचर, 3. अरूपावचर और 4. लोकोत्तर। __ 1. कामावचर-चित्त- यह चित्त की वह अवस्था है, जिसमें कामनाओं और वासनाओं का प्राधान्य होता है। इसमें वितर्क एवं विचारों की अधिकता होती है। मन सांसारिक-भोगों के पीछे भटकता रहता है। 2. रूपावचर-चित्त- इस अवस्था में वितर्क-विचार तो होते हैं, लेकिन एकाग्रता का प्रयत्न भी होता है। चित्त का आलम्बन बाह्य-स्थूल विषय ही होते हैं। यह योगाभ्यासी चित्त की प्राथमिक-अवस्था है। 3. अरूपावचर-चित्त- इस अवस्था में चित्त का आलम्बन रूपवान् बाह्यपदार्थ नहीं हैं। इस स्तर पर चित्त की वृत्तियों में स्थिरता होती है, लेकिन उसकी एकाग्रता निर्विषय नहीं होती। उसके विषय अत्यन्त सूक्ष्म, जैसे-अनन्त आकाश, अनन्त विज्ञान या अकिञ्चनता होते हैं। 4. लोकोत्तर-चित्त- इस अवस्था में वासना-संस्कार; राग-द्वेष एवं मोह का प्रहाण हो जाता है। इस अवस्थाको प्राप्त कर लेने पर निश्चित रूपसे अर्हत्-पद एवं निर्वाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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