Book Title: Bharatiya Achar Darshan Part 01
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 524
________________ भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन कामनाओं की बहुलता होती है। इसी प्रकार, जैनदर्शन का यातायात-मन, बौद्ध दर्शन का रूपावचर- चित्त और योगदर्शन का विक्षिप्त-चित्त भी समानार्थक है, सामान्यतया सभी के अनुसार इस अवस्था में चित्त में अल्पकालिक स्थिरता होती है तथा वासनाओं के वेग में थोड़ी कमी अवश्य हो जाती है। इसी प्रकार, जैन-दर्शन का श्लिष्ट मन, बौद्ध दर्शन का अरूपावचर - चित्त और योगदर्शन का एकाग्र चित्त भी समान ही हैं। सभी ने इसको मन की स्थिरता की अवस्था कहा है । चित्त की अन्तिम अवस्था, जिसे जैनदर्शन में सुलीन-मन, बौद्ध दर्शन में लोकोत्तर - चित्त और योगदर्शन में निरुद्ध-चित्त कहा गया है, भी समान अर्थ - द्योतक हैं। इसमें वासना, संस्कार एवं संकल्प - विकल्प का पूर्ण अभाव हो जाता है। समग्र नैतिक साधना का लक्ष्य चित्त की इस वासना-संस्कार एवं संकल्प-विकल्प से रहित अवस्था को प्राप्त करना है। आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि क्रम से अभ्यास बढ़ाते हुए, अर्थात् विक्षिप्त से यातायात - चित्त का, यातायात से श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन-चित्त का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह अभ्यास करने से निरालम्बन-ध्यान होने लगता है। निरालम्बन-ध्यान में समत्व प्राप्त करके परमानन्द का अनुभव करना चाहिए। योगी को चाहिए कि वह बहिरात्मभाव का त्याग करके अन्तरात्मा के साथ सामीप्य स्थापित करे और परमात्ममय बनने के लिए निरन्तर परमात्मा का ध्यान करे 149 522 इस प्रकार, चित्त-वृत्तियों या वासनाओं का विलयन भी समालोच्य आचारदर्शनों का प्रमुख लक्ष्य रहा है। इनके द्वारा ही मन क्षोभ उत्पन्न होता है, जिससे चेतना के समत्व का भंग होता है, अत: आगे इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है कि ये चित्त-क्षोभ को उत्पन्न करने वाली मनोवृत्तियाँ कौनसी हैं और इनका नैतिक - जीवन क्या सम्बन्ध है ? सन्दर्भ ग्रंथ - गीता, 7/4, 13 /5. 2. योगवाशिष्ठ निर्वाण प्रकरण, 78 / 21, 3 / 91 / 31,3/91/37, 3 / 95/40, 3/ 96/41. अभिधानराजेन्द्र, खण्ड 6, पृ. 74. दर्शन और चिन्तन, भाग 1, पृ. 140. वही भारतीय दर्शन, पृ. 284-85. 1. 3. 4. 5. 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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