Book Title: Bhagvana Mahavira Diwakar Chitrakatha 057 058 Author(s): Jinottamsuri, Shreechand Surana Publisher: Diwakar PrakashanPage 43
________________ 01010 6 S.Mitta NOOOOOOO 10 राजा -“वत्स ! तुमको तो क्रीड़ा करते देखकर ही मुझे प्रसन्नता होती है। युद्ध करना तो मेरा ही कार्य है न !" Laal पार्श्व-‘“पिताश्री ! मैं तो युद्ध को भी क्रीड़ा ही समझता हूँ। मैंने युद्धविद्या किसलिए सीखी है ? क्या मेरे पराक्रम पर आपको भरोसा नहीं है ?" पिता-“वत्स ! तुम्हारे बल पराक्रम पर कौन सन्देह कर सकता है। किन्तु मैं अभी तुमको युद्ध में नहीं भेजना चाहता।' पार्श्व–‘“पिताश्री ! विश्वास रखिए, मैं ऐसा युद्ध करूँगा कि एक भी सैनिक का खून न बहे और न्याय नीति की रक्षा भी हो जाये।" राजा (आश्चर्य के साथ) - " वत्स ! तुम जो कहते हो, वही कर सकते हो...... परन्तु....।” क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ Jain Education International पार्श्व–‘“पिताश्री ! किन्तु-परन्तु कुछ नहीं है। आप निश्चिंत होकर धर्माराधना कीजिए। मुझे आशीर्वाद दीजिए।" पिता का आशीर्वाद प्राप्त कर विशाल सेना के साथ पार्श्वकुमार ने प्रस्थान किया। मार्ग में सेना ने रात्रि विश्राम किया। For Private & Personal Use Only 41 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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