Book Title: Bhagvana Mahavira Diwakar Chitrakatha 057 058
Author(s): Jinottamsuri, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 59
________________ उठा-"यही मेरा शत्रु है। पिछले जन्मों में इसने बार-बार मुझे कष्ट दिये। मेरी दुर्दशा कराई। आज उन सबका बदला लूँगा।" उसने अपने माया बल से केसरी सिंहों को उत्पन्न कर दिया। पाँच-छह सिंह दहाड़ते, पूँछ उछालते एक साथ प्रभु पर झपटे। नाखूनों से पार्श्व प्रभु के शरीर को घायल कर दिया। दहाड़े लगाईं। गर्जना से जंगल काँप उठा। किन्तु प्रभु तो मूर्ति की तरह ध्यान में स्थिर खड़े रहे। राक्षस आकाश में खड़ा सोचता है-'यह तो अभी भी स्थिर खड़ा है। मेरे सब प्रयत्न व्यर्थ हो रहे हैं।' क्रोध में होठ काटता दाँत किटकिटाता राक्षस हुँकारता है-"आज इस शत्रु का संहार करके ही रहूँगा। बहुत जन्मों से तुमने मुझे कष्ट पहुँचाया है। आज सब पुराना हिसाब चुकता करके दम लूंगा।" क्रोधान्ध हो वह अपनी देव शक्ति द्वारा आकाश में गहरे काले बादल बनाकर कल्पान्तकाल के मेघ समान घनघोर वर्षा करने लगा। मोटी-मोटी जलधारा बरसने लगी। धरती पर चारों तरफ बाढ़ आ गई। काली-काली घटाएँ छाने लगीं। बिजलियों की चकाचौंध TREETIT 57 क्षमावतार भगवान पार्श्वनाथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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