Book Title: Bhagavati Jod 04 Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 11
________________ (९) वर्णित है। राजा उदायन का पुत्र अभीचिकुमार श्रमणोपासक था । अनशन में भी वह अपने पिता के प्रति उत्पन्न द्वेष भाव से मुक्त नहीं हुआ । इस क्रम से देशव्रत की विराधना कर असुरकुमारावास में पैदा हुआ। सातवें उद्देशक में भाषा, मन और काय का अनेक दृष्टियों से विवेचन किया गया है। इसी उद्देशक में आगे मरण के पांच प्रकारों का वर्णन है। आठवें उद्देशक में कर्म प्रकृतियों की चर्चा है, पर यहां प्रज्ञापना सूत्र की सूचना देकर उनका उल्लेख मात्र किया गया है । नवमें उद्देशक में भावितात्म मुनि द्वारा किए जाने वाले वैरिलब्धि के विविध प्रयोगों की चर्चा है। उद्देशक के अन्त में यह बताया गया है कि मायी भावितात्म अनगार विक्रिया करता है। विक्रिया करने वाला अनगार आलोचना और प्रतिक्रमण करके अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है तो वह आराधक है। आलोचना किए बिना मृत्यु को प्राप्त करने वाला विराधक होता है। दसवें उद्देश में किसानों की वर्षा की गई है। विविध विषयों का स्वर्ण करने वाला मूलपाठ और वृत्ति के आधार पर रचित तथा बीच-बीच में समीक्षात्मक गद्य और पद्यों से परिवर्धित प्रस्तुत शतक पाठक को ज्ञान की गहराई तक पहुंचाने बाला है। चौदहवें शतक के दस उद्देशक हैं। शतक के प्रारंभ में संग्रहणी गाथा के आधार पर सात दोहों में वर्ण्य विषयों को उल्लिखित किया गया है। प्रथम उद्देशक में लेश्यानुसारी उपपाद तथा चौबीस दण्डकों के जीवों का अनन्तर, परम्पर आदि की चर्चा है। दूसरे उद्देशक में दो प्रकार के उन्माद बताकर चौबीस दण्डकों में उन्माद का वर्णन किया गया है। इसी उद्देशक में देवों द्वारा वृष्टिकाय और तमस्काय करने की चर्चा है । तीसरे उद्देशक में देवों और नैरयिक जीवों की विनय विधि तथा उनके द्वारा अनुभव किए जाने वाले पुद्गल परिणामों की संक्षिप्त चर्चा की गई है । चौथे उद्देशक में पुद्गल और जीवों की विविध परिणतियों तथा जीव परिणाम और अजीव परिणाम के भेदों का उल्लेख है । पांचवें उद्देशक में चौबीस दण्डक के जीवों द्वारा अग्निकाय के अतिक्रमण का प्रश्न उपस्थित किया है। इस सन्दर्भ में उनकी विग्रहगति और अविग्रहगति को आधार बनाकर समझाया गया है। इसी प्रकार शब्द रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, गति, स्थिति, लावण्य, यशकीर्ति और उत्थान कर्म-बल-वीर्य पुरुषाकार पराक्रम इन दस बोलों को चौबीस दण्डकों के सन्दर्भ में चर्चित किया गया है। छठे उद्देशक के प्रारंभ में नैरयिक जीवों के आहार आदि का वर्णन है। दूसरा प्रसंग इन्द्र का है। इन्द्र के मन में दिव्य भोग भोगने की इच्छा होती है, तब वह क्या करता है ? इस प्रश्न को विस्तार के साथ उत्तरित किया गया है। सातवें उद्देशक में भगवान महावीर द्वारा गणधर गौतम को आश्वस्त करने का वर्णन है। गौतम द्वारा दीक्षित साधुओं को केवलज्ञान उपलब्ध हो गया। वे वीतराग बन गए। इस घटना से गौतम उद्वेलित हो गए। भगवान् महावीर ने गौतम के केवलज्ञान में उपस्थित बाधा का मनोवैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया और अन्त में यह बताया है कि इस शरीर को छोड़ने के बाद हम तुल्य हो जाएंगे । यह कथन गौतम के लिए बहुत बड़ा आलम्बन बन गया। महावीर और गौतम की तुल्यता को अनुत्तरोपपातिक देव जानते हैं या नहीं ? इस प्रश्न को समाहित करने के बाद छह प्रकार की तुल्यता का विवेचन है । अनशन की स्थिति में उत्पन्न आहार की इच्छा, लवसत्तम देव और अनुत्तर विमान के देवों की संक्षिप्त चर्चा के साथ उद्देशक पूरा हुआ है । आठवें उद्देशक में नरकभूमियों और देवों के आवासों के मध्य की दूरी का वर्णन है। वृक्षों के पुनर्जन्म की चर्चा है अम्बड़ परिव्राजक के शिष्यों का अनशन, अम्बड़ की चर्या, अव्याबाध देवों की शक्ति, इन्द्र की शक्ति तथा जृम्भक देवों का वर्णन है । प्रस्तुत उद्देशक की जोड़ में कुछ स्थलों पर जयाचार्य की लम्बी समीक्षा भी है। नौवें उद्देशक के प्रारंभ में लेश्या, पुद्गल, देवभाषा, सूर्य और श्रमणों की तेजोलेश्या का वर्णन है। एक मास की दीक्षा पर्यायवाला श्रमण व्यन्तर देवों की तेजोलेश्या को अतिक्रांत कर देता है उन्हें प्राप्त होने वाले सुखों से आगे बढ़ जाता है। इसी क्रम में दो मास तीन मास यावत बारह मास की दीक्षा पर्यायवाला भ्रमण अनुत्तर विमान के देवों की तेजोलेश्या को अतिक्रांत कर देता है। इस उद्देशक का प्रतिपाद्य यह है कि साधु जीवन में जिस सुख का अनुभव हो सकता है, वह देवों को भी उपलब्ध नहीं है । दसवें उद्देशक में केवली और सिद्धों के ज्ञान दर्शन के बारे में कुछ प्रश्न उपस्थित कर उनको समाहित किया गया है। चौदहवें शतक की पूरी जोड़ पन्द्रह ढालों और दोहों-सोरठों में रची गयी है । भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक की रचना नई शैली में है। इसमें न किसी संग्रहणी गाथा का संकेत है और न अलग-अलग उद्देशक हैं। पूरा शतक संलग्न रूप में व्याख्यात है। इसमें मुख्य रूप से गोशालक का वर्णन है। प्रासंगिक रूप में आजीवक मत, भगवान महावीर की तपस्या, उनके द्वारा गोशालक का शिष्य रूप में स्वीकार, नियतिवाद, पोट्टपरिहार, वैश्यायन तपस्वी द्वारा तेजोलब्धि का प्रयोग, भगवान् द्वारा गोशालक का बचाव इस सन्दर्भ में समीक्षात्मक वार्तिका, तेजोलब्धि प्राप्त करने की विधि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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