Book Title: Bhagavati Jod 04
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
१६. वाण सुणो महावोर नों रे, श्रावक सखर सुजान ।
हिये धार हरष्या घणां रे, पवर संतोष प्रधान ॥ १७. वच-स्तुती जिन वंदनै रे, नमस्कार शिर नाम ।
प्रश्न प्रते पूछी करी रे, अर्थ ग्रही अभिराम ।।
१८. ऊठी नै ऊभा थई रे, वीर कनां थी ताहि ।
कोठग बाग थी नीकली रे, आवै सावत्थी मांहि ॥
१६. तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ
महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा । १७. समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति, वंदित्ता
नमंसित्ता पसिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई
परियादियंति । १८. उट्ठाए उठेति, उठेता समणस्स भगवओ . महावीरस्स अंतियाओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडि
निक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सावत्थी नगरी
तेणेव पहारेत्थ गमणाए। (श. १२१३) १९. तए णं से संखे समणोवासए ते समणोवासए एवं
वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह ।
१६. संख श्रावक तिण अवसरे रे, श्रावका ने कहै वाय ।
तुम्हे अहो देवानुप्रिया! रे बह चिहं आ'र निपाय ॥
सोरठा २०. उदक केम रंधाय, तास न्याय इम संभवै।
अन्न विषे जल आय, तथा उदक उन्हो करै ।। २१. *ते बहु चिहुं असणादि मैं रे, आस्वादता विस्वाद ।
देता भोगवता विचरसां रे, पक्खी पोसह जाग्रत समाध ।।
२१. तए णं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं
अस्साएमाणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो।
(श. १२१४)
__ सोरठा २२. आस्वादन संवादि, अल्प खाय बहु न्हाखवो।
इक्षु-खंड इत्यादि, तेहनी पर पहिछाणवो ।। २३. विस्वादन सुविशेष, घणो खायवो छै तसु ।
अल्प न्हाखवो शेष, छुहारादिक नी परै। २४. परिभाए पहिछाण, माहोमां देता छतां ।
परि जमाणा जाण, सहु खाये पिण नहि तजै॥
वा०-'आसाएमाणा इत्यादि' ए पद नै वर्तमान प्रत्ययांतपणे पिण अतीत प्रत्ययांतपणो जाणवो । अनै वली तेह थकी ते विस्तीर्ण असनादि आस्वादितवंत छता 'पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो त्ति' पक्ष ते अर्द्धमास नै विषे वयं ते पाक्षिक, पोषध ते अव्यापार एतले सावज्ज व्यापार नां त्याग, ते पोषध प्रते जागता-अनुपालता विचरस-रहिसां ।
जे इहां अस्साएमाणा इत्यादिक पूर्व कह्या ते पद नै विषे अतीत काल प्रत्ययांतपणां नै विपे वर्तमान प्रत्यय ग्रहण करिवो, ते भोजन कीधां पछैहीज अविलंब करिक पोसह अंगीकार करिवू ते देखाड़वा नै अर्थे हीज । एवं उत्तर पद नै विषे पिण गमनिका करवी। २५. धर्म तणी जे पुष्ट', जीमी पोसह नाम तम् ।
दशमो व्रत अदुष्ट, पिण नहि व्रत इग्यारमों ।। २६. *तिण अवसर श्रावक बहु रे, संख श्रावक नी वाय ।
विनय करीने सांभलै रे, अंगीकार करै ताय ॥ *लय : पंखी गुणरसियो १. पुष्टि
२२. 'आसाएमाण' त्ति ईषत्स्वादयंतो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेरिव ।
(वृ. प. ५५५) २३. 'विस्साएमाण' त्ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खजूरादेरिव
(वृ. प. ५५५) २४. 'परिभाएमाण' त्ति ददत: परिभुजेमाण' त्ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः ।
(वृ. प.५५५) वा.-एतेषां च पदानां वार्तमानिकप्रत्यपान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या, ततश्च तद्विपुलमशानाद्यास्वादितवन्तः सन्तः 'पक्खियं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामों त्ति पक्षे-अर्द्ध मासे भवं पाक्षिक 'पौषधं' अव्यापारपौषधं 'प्रतिजाग्रतः' अनुपालयन्तः 'विहरिष्याम' स्थास्यामः । ___ यच्चेहातीतकालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्त्तमानिकप्रत्ययोपादानं तद्भोजनानन्तरमेवाक्षेपेणं पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थ, एवमुत्तरत्रापि गमनिका कार्येत्येके ।
(वृ. प. ५५५)
२६. तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स
एयमट्ठविण एणं पडिसुणेति । (श. १२५)
२ भगवती जोड़
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 ... 460