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(३) सव भव्य जीवों की मुक्ति होगी? (४) सब भव्य जीव मुक्त हो जाएंगे तो क्या लोक भव्य जीवों से शून्य हो जाएगा? (५) सोना अच्छा है या जामना? (६) बलवत्ता अच्छी है या दुर्बलता? (७) दक्षता-पुरुषार्थ अच्छा है या आलस्य ? (८) इन्द्रियों की वशतिता से किन कर्मों का बन्ध होता है ? भगवान् महावीर ने जयन्ती के सब प्रश्नों को उत्तरित कर उसे समाहित कर दिया। तीसरे उद्देशक में नरक की सात पृथ्वियों, उनके नाम, गोत्र आदि का निरूपण है।
चतुर्थ उद्देशक में पूदगलों के मिलन और भेद का विस्तृत विवेचन है। जोड़ में जो विवेचन है, उसे यन्त्रों के माध्यम से और अधिक स्पष्ट करके निशित किया गया है। इसके बाद पुदगल-परावर्त का पूरे विस्तार के साथ वर्णन है । पुद्गल परावर्त के प्रकार, चौबीस दण्डको में पुदगल परावर्त, इनमें अल्पबहुत्व आदि की चर्चा है।
पांचवें उद्देशक में वर्णादि की अपेक्षा से द्रव्य की मीमांसा की गई है। क्रोध, मान, माया और लोभ के पर्यायवाची नामों की व्याख्या और उनमें वर्ण, गंध आदि का उल्लेख है। इसी क्रम से बुद्धि के प्रकार, मतिज्ञान के प्रकार, उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम, जीव परिणामी, अजीव-परिणामी, अवकाशांतर, चौबीस दण्डक, पंचास्तिकाय, कर्म, लेण्या, दृष्टि, शरीर, योग, उपयोग, सब द्रव्य और गर्भोत्पत्ति काल में वर्ण आदि का विवेचन है। उद्देशक के अन्त में कर्मों के योग से होने वाली जीवों की विचित्रता का वर्णन है।
छठे उद्देशक में चन्द्रमा-सूरज का ग्रहण, राहू का स्वरूप, राहु के भेद और चन्द्रमा एवं सूरज के कामभोग का विवेचन है। सातवें उद्देशक में लोक में जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु का विस्तार से वर्णन है।
आठवें उद्देशक में देवों के द्विशरीरी उपपाद आदि का वर्णन है। नौवें उद्देशक में पांच प्रकार के देवों का विस्तृत विवेचन है । दसवें उद्देशक में आत्मा की चर्चा है । आत्मा के प्रकार, किस गुणस्थान तक कौन-सी आत्मा, किस आत्मा में किन आत्माओं की नियमा-भजना, आठ आत्माओं का अल्प बहुत्व, आत्मा के साथ ज्ञान-दर्शन का भेदाभेद आदि का निरूपण है। परमाण, स्कन्ध आदि के सन्दर्भ में आत्मा-नोआत्मा के प्रसंग को यन्त्रों के माध्यम से भी स्पष्ट किया गया है।
जयाचार्य ने १३ ढालों, दोहों-सोरठों, वार्तिकाओं और यन्त्रों के द्वारा बारहवें शतक को कहीं संक्षेप और कहीं विस्तार के साथ विश्लेषित किया है । बीच-बीच में अपने स्वतन्त्र चिन्तन के आधार पर कुछ समीक्षाएं भी की गई है ।
तेरहवें शतक का गुम्फन १९ ढालों, दोहों-सोरठों एवं वार्तिकाओं में किया गया है। इसके प्रथम उद्देशक में सात नरकभूमियों का वर्णन है। गणधर गौतम ने भगवान महावीर से नरकभूमियों की संख्या, नरकावासों की संख्या और उनमें उत्पन्न होने वाले जीवों के सम्बन्ध में उनचालीस प्रश्न किए हैं। नरकभूमियों से उदवर्तन---निकलने और सत्ता के बारे में भी ऐसी ही प्रश्नावली है। दृष्टि और लेश्या को भी विषयवस्तु बनाकर प्रश्न उपस्थित किए गए हैं। भगवान ने प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देकर गौतम को समाहित कर दिया।
दूसरे उद्देशक में नै रयिकों की भांति औपातिक होने के कारण देवों का वर्णन किया है। देवों के प्रकार, उनके आवास, उनमें उत्पन्न होने वाले देवों में दृष्टि, लेश्या आदि का वर्णन मूल पाठ और वृत्ति के आधार पर किया गया है। उसके बाद जयाचार्य ने अन्य ग्रन्थों के आधार पर भी नैरयिक जीवों और देवों के आवासों की संख्या का वर्णन किया है।
तीसरे उद्देशक में चौवीस दण्डकों के जीवों के आहार ग्रहण, शरीर संरचना और परिचारणा आदि का वर्णन संक्षेप में वर्णित
चोथे उद्देशक में नरकभुमियों और नैरयिक जीवों में स्थान, कर्म, वेदना आदि की अल्पता और अधिकता का प्रतिपादन है। इसी प्रकार नरकभूमियों की मोटाई, लम्बाई, चौड़ाई, नरक भूमियों के पार्श्ववर्ती जीवों के कर्म, वेदना आदि का विवेचन है । इसी उद्देशक में लोक के मध्य आयाम, दिशाओं-विदिशाओं का प्रवाह, लोक का स्वरूप, पंचास्तिकाय का वर्णन, उनकी स्पर्शना, अवगाहना जीवों की अवगाहना, लोक का संस्थान आदि अनेक विषयों का वर्णन है।
पांचवें उद्देशक में नैरयिक जीवों के आहार का वर्णन है। यह वर्णन प्रज्ञापना सूत्रानुसारी है। इसलिए यहां उसका उल्लेख करते हुए मात्र संक्षिप्त सूचना दी गई है।
छठे उद्देशक में नैरयिक जीवों एवं देवों की सान्तर-निरन्तर उत्पत्ति एवं च्यग्न की चर्चा करते हुए असुरेन्द्र चमर के चमरचंचा नामक आवास का विस्तृत विवेचन है। देशयत और नवव्रत के विराधक व्यक्ति असुरकुमार देव बनते हैं । जैन शासन में इस प्रकार की विराधना के सन्दर्भ मैं सिन्धु-सौवीर देश में वीतिभय नामक नगर के राजा उदायन का विस्तृत कथानक इसी उद्देशक में
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