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बहुरत्ना वसुंधरा : भाग
२
अदृश्य ऋणानुबंधवशात् अदम्य आकर्षण उत्पन्न हुआ । जब वे किसी श्रावक के घर जा रहे थे तब भद्रिक भाव से उसने जिज्ञासापूर्वक पूछ लिया 'आपश्री को दीक्षा लिए कितने साल हुए हैं ?"
'छोटे मुँह, बडी बात' जैसा लगने से सहवर्ती मित्रने जतीन को रोकते हुए कहा 'दोस्त ! महाराज साहब को ऐसे प्रश्न नहीं करने चाहिए' । इतने में तो पूज्यश्रीने वात्सल्य सभर स्वरमें कहा 'अच्छा प्रश्न किया है तूने, ऐसे प्रश्न खुशी से पूछ सकते हो, लेकिन मैं तेरे प्रश्न का जवाब दूँ तो तुम भी दीक्षा लोगे न ?'
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अपने प्रश्न के प्रत्युत्तरमें अचानक ऐसा प्रतिप्रश्न होने की जतीन को कल्पना न थी । गुरु महाराज के युक्ति - युक्त प्रत्युत्तर से उसकी लघुता ग्रंथी तो दूर हो गयी; लेकिन उनके प्रश्नका जवाब देने के लिए उसकी जिहवा मानो स्तब्ध हो गयी । मनमें मौन व्याप्त हो गया । गुरुजीने बात को सम्हालते हुए कहा 'कोई हर्ज नहीं, तुझे दीक्षा लेनी होगी तो देंगे, लेकिन उसके लिए तेरे प्रश्न का जवाब नहीं रुकेगा ।'... बादमें उन्होंने अपना दीक्षा पर्याय बताया और प्रेमपूर्वक जतीनकी पीठ थपथपाकर आशीर्वाद दिये। जतीन भी गुरुदेव के अद्भुत गुरुत्वाकर्षणमें खींचता गया । करीब १० - १२ दिन की स्थिरतामें पूज्यश्रीने दिनको प्रवचन एवं रातको भी पुरुषों के लिए रात्रि सत्संग रखा । खास कर के बच्चों में धर्म संस्कारों का सींचन करने के लिए उन्होंने विशेष प्रयत्न किये। जतीनकुमारने पूज्यश्री के प्रवचन आदिका लाभ लिया । छोटी उम्र के कारण गुरुदेवश्री की वाणी का हार्द सूक्ष्म रूपसे या गहराई से समझने की उसकी क्षमता नहीं थी मगर स्थूल बुद्धि से जितना भी संभव था उतना उसने ग्रहण किया ।
मोहाधीन जतीन के माँ-बाप को यह बात पसंद न थी । कहीं अपना बेटा म.सा. के साथ जाने की जिद न कर बैठे ऐसी कल्पना से उन्होंने जतीन को गुरुदेव के बिदाई समारोहमें जानेका मौका भी नहीं दिया ।...
इस प्रकार से जतीन के बाल मानसमें धर्म के बीज का वपन हो गया । बादमें उपरोक्त पूज्यश्री के प्रशिष्य तपस्वी रत्न प.पू. पंन्यास प्रवर