Book Title: Avashyakaniryuktidipika Part_1
Author(s): Manekyashekharsuri
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala Surat

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Page 11
________________ जिनगणभृत्स्थविरावलीभेदात् त्रिधाऽऽवलिका आह ॥ 'उसमें' 'विमल' उसभं अजियं संभवमभिनंदण, सुमइ सुप्पभ सुपासं । ससिपुप्फदंत सीयल, सिजंसं वासुपुजं च ॥ २० ॥ विमलमणंतय धम्म, सन्ति कुंथु अरं च मल्लिं च । मुनिसुवय नमि नमि, पासं तह वद्धमाणं च ॥ ___ सुप्रभेति पद्मप्रभः, ससिपुष्पदन्तेति चन्द्रप्रभं सुविधिं 'अणंतय' इति अनन्तजित्शब्दो अनन्तजिनवाची ॥ २१ ॥ | 'पढमिथ' 'मंडिअ'पढमित्थ इंदर्भूई, बीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । तइए य वाउ ई, तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥२२॥ मंडिअमोरियपुत्ते, अकंपिए चेव अयलभाया य । मेअज्जे य पहासे, गणहरा हुति वीरस्स ॥२३॥ __ व्यक्तः सुधर्मा मण्डितपुत्रो मौर्यपुत्रः ॥ २२-२३ ॥ सम्प्रति श्रीवीरशासनं विजयते अतः तदेव स्तौति ॥ 'निव्वुइ' निव्वुइपहसासणयं, जयइ सया सवभावदेसणयं । कुसमयमयनासणयं, जिणिंदवरवीरसासणयं ॥ २४ ॥ For Private & Personal Use Only Talww.jainelibrary.org Jain Education Internelle

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