Book Title: Avashyakaniryuktidipika Part_1
Author(s): Manekyashekharsuri
Publisher: Vijaydansuri Jain Granthmala Surat

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Page 14
________________ आवश्यक नियुक्तिदीपिका ॥ स्थविरस्तुतिः॥ वंदामि अजधम्मं तत्तो वन्दे य भई गुत्तं च । तत्तो य अजवैरं तवनियमगुणहिं वइरसमं ॥ ३१ ॥ आर्यधर्म वाचकं, ततो भद्रगुप्तं, ततः श्रीवजं तपोनियमगुणैः वज्रतुल्यं अभेद्यत्वात् ॥ ३१ ॥ 'वन्दामि' वन्दामि अज्जरस्कियं खमणे रस्किय चारित्ते सव्वस्से । रयणकरडंगभूओ अणुओगो रकिओ जेहि ॥ ३२ ॥ क्षपकान् कर्मक्षयकरान् रक्षितचारित्रसर्वस्वान् विचाररत्नानां करण्डकभूतोऽनुयोगः पृथक्करणेन साधूनां विस्मृति गच्छन् रक्षितः, एतद् गाथाद्वयं पदानुक्रमाभावेऽपि तत्समययुगप्रधानागमसूरीणां ज्ञापकं, क्षेपकत्वाद् वृत्तौ न उक्तं । अत्र केऽपि मंगोरार्यधर्मेति नामान्तरं आहुः ॥ श्रीमहागिरेः श्रीवजं यावद्दशपूर्विणः, आर्यरक्षितः तत् शिष्यः दुर्बलिकापुष्पश्च नवपूर्विणौ ॥ ३२ ॥'नाणं'नाणमि दंसणंमि अ, तवविणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । अजं नंदिलक्खमणं, सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥३३॥ ज्ञाने दर्शने तपोविनये नित्यकालं उद्युक्तं आर्यमङ्गुशिष्यं आर्य नंदिलक्षपणं तपस्विनं ॥ ३३ ॥ 'वड्डउ'-- १ एते द्वे गाणे नन्दौ न स्तः ॥ ६ ॥ Jain Education Internet For Private & Personal Use Only al ww.jainelibrary.org

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