Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 14
________________ ( १२ ) लेना, यह एक विचारणीय प्रश्न होजायगा । इन सब बातों पर विवेकदृष्टि से विचार किया जाय तो सुख दुःख का जाननेवाला, स्मृति आदि गुणों से विभूषित आत्मा पदार्थ अनुभव सिद्ध है । तथा कुशाग्रबुद्धि तत्त्ववेत्ताओंने अनुमान प्रमाण से भी सिद्ध किया है । जब 'आत्मा' पदार्थ सिद्ध होता है, तब पुण्य-पाप का भी संबंध स्वतःसिद्ध है। जब पुण्य-पाप का अस्तित्व है, तो फिर परलोक के वास्ते कहना ही क्या ? और जब परलोक साबित हैं, तो फिर आत्मा की उन्नति चाहनेवाले नरवीरों को आत्मा की पहचान अवश्य करनी चाहिए | प्रत्येक दर्शनकारने आत्मसिद्धि के वास्ते अत्यन्त प्रयत्न किया है । वैसा करके अपने क्षयोपशमानुसार आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन किया है। तब जैनशास्त्रकारोंने अतीन्द्रिय ज्ञानद्वारा बरावर मनन करके लोकोपकार के लिये आत्मा के स्वरूप का यथार्थ दर्शन कराया है, उसमें से यत्किञ्चित् यहाँ पर प्रकट किया जाता है । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अज, अविनाशी, अचल, अकल, अमल, अगम्य, अनामी, अरूपी, अकर्मा, अवन्धक, अयोगी, अभोगी, अरोगी, अभेदी, अच्छेदी, अवेदी, अखेदी, अकषायी, असखायी, अलेशी, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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