Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 20
________________ ( १८ ) तरह नामक जिस प्रकार का होता है वैसा शरीर बनता है। नामकर्म के ४२, ९३, अथवा १०३ भेद हैं । इसका विस्तार यहाँ नहीं करते हुए कर्मग्रंथ तथा लोकप्रकाश पृ. ५८८ से ६०० पर्यन्त नामकर्म का अधिकार देखने का अनुरोध किया जाता है । गोत्रकर्म कुंभकार ( कुंभार ) तुल्य है । जैसे कुंभार छोटे बड़े कुंभादि बनाता है । उन घडो में से कुछ प्रशं सित होते हैं. ओर कितनेक की निंदा भी होती है। वैसे ही जीव उच्चगोत्रकर्म के जोर से प्रशंसापात्र होता है, और नीचगोत्रकर्म के जोर से निदापात्र भी होता है । ऊंच-नीच गोत्र की मर्यादा का आधार इसी कर्म पर रहा हुआ है। जिन देशों में जाति बंधन नहीं हैं । उन देशों में भी ऊंच-नीच गोत्र का व्यवहार होता है । तात्पर्य इतना ही है कि कर्मकृत भेद किसी भी स्थान पर गुप्त नहीं रह सकता है । अन्तरायकर्म कोषाध्यक्ष अर्थात् खजानची के तुल्य है । अर्थात् राजा संतुष्ट होवे, परन्तु कोषाध्यक्ष यदि प्रतिकूल होगा, तो दमड़ी भी नहीं मिलती है। वैसे ही यदि अन्तराय कर्म का उदय होता है तो दान, लाभ, भोग, उपभोग, और वीर्य - इन पांच वास्तविक गुणों से जीव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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