Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 34
________________ ( ३२ ) णाम का स्वामी होता है, और जब जीव, अपूर्व करणरूप परशु द्वारा रागद्वेष की मजबूत गांठ को छिन्नभिन्न कर अनिवृत्तिकरणरूप विशुद्धतर अध्यवसाय को प्राप्त करता है, तब, कई एक आचार्यों के मतानुसार औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । अन्य कइ एक पूज्यवरों के आशयानुसार क्षयोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय में जीव अवर्णनीय आनंद पाता है। जिस प्रकार कि-सुभट दुर्जय शत्रु पर विजय प्राप्त करके आनंदित होता है, और जैसे किसी भयंकर अटवी में तृषा से पीड़ित मनुष्य को, शीतल-चंदन वृक्ष की स्निग्ध घाया के नीचे बैठ कर अमृत का पान कराया जाय, उस समय उस का जो आनंद होता है, उस से भी विशेष आनंद सम्यक्त्ववाले जीव को प्राप्त होता है। इस प्रकार जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, और वही निसर्गसमकित कहा जाता है। उपर्युक्त कथनानुसार सम्यक्त्व दो प्रकार का है । १ अधिगमसपकित, २ निसर्गसमकित । दोनों प्रकार के सम्यक्त्व की प्राप्ति मिथ्यात्वभाव दूर होने से होता है । जैसे कोई पुरुष सन्मार्ग का त्याग कर उन्मार्ग पर गया होवे, वह कभी भ्रमण करता हुआ स्वयं सन्मार्ग पर आ जाता है। अथवा दूसरा कोई मनुष्य उसको मार्ग पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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