Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 44
________________ (४२) होगा या नहीं ? इत्यादि संबन्ध में ज्ञानादि की दरकार ही नहीं रहती। इतने पर से ही समझ में आजावेगा कि प्रत्येक कार्य में इस त्रिपुटी की आवश्यकता है। इसके वास्ते तत्त्वार्थसूत्र की बृहवृत्ति में विशेष खुलासा दिया है। जिज्ञासुओं को चाहिए कि उस पुस्तक को देखें। रत्नत्रय, यही समाधि, यही योग, यही ध्यान और यही आत्मशुद्धि का परम कारण है। यद्यपि हठयोग तात्कालिक गुणकर्ता प्रतीत होता है, किन्तु वास्तविक आत्मशुद्धिदायक नहीं है । मर्कट ( बंदर ) के समान मन को बलात्कार से बांधने से उस का लाभ केवल बंधन समयतक ही है । वहाँ से मुक्त होते ही फिर चंचलता में भ्रमण करने लगता है। इस वास्ते हठयोग में जैसा 'नाम वैसाही गुण है ।' सहज समाधि ज्ञान, दर्शन चारित्रवान् पुरुषों के अतिरिक्त अन्य को प्राप्त नहीं होती है। इसलिये ज्ञान, दर्शन, चारित्र द्वारा ही आत्मोन्नति के लिये तत्पर रहना चाहिये। __अन्त में-विना कर्म के, जगत् विचित्र रचनावाला दिखाई नहीं देता है । जिस समय आत्मा कर्म-कीडड़ से मुक्त होता है, तब ही परमात्मा गिना जाता है । इस वास्ते परमात्मा की उच्च दशा प्राप्त करने के लिये हमेशा शुभ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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