Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 29
________________ (२७) जैसे महान कार्य की तो बात ही क्या है ? जिनोक्त तत्व में रुचि रखना, उस का नाम ही श्रद्धा है । और वही सम्यक् दर्शन अथवा सम्यक्त्व कहलाता है । जैसे रत्नों का आधार समुद्र है, और प्राणी मात्र का आधार भूमि है, वैसे ही समस्त गुणों का आधार सम्यक् दर्शन है । जीस जीव के हृदय मंदिर में श्रद्धान रूप दीपक प्रकट हुवा है, उस के हृदय में मिथ्यात्व रूपी अन्धकार कदापि नहीं रह सकता है । सम्यक्त्व रन्न की प्राप्ति किसी को गुरु के उपदेश से होती है, और किसी को स्वाभाविक ही होती है । अनादि संसार चक्र में भ्रमण करता हुआ जीव अकाम निर्जरा के योग से 'नदी-पापाण' न्यायानुसार (नदी में रहे हुए पाषाण को कोई घड़ना नहीं है, परन्तु वह स्वयं गोलाकार बनता है, वैसे) अनुपयोग भाव से अशुभ कर्म का भार घटाकर शुभ कर्म की वृद्धि करता हुआ आर्यक्षेत्र, उत्तमकुल, पंचेन्द्रियपटुता, सद्बुद्धि, शास्त्रश्रवण, और तत्व का अन्वेषण (शोध) आदि गुणों को प्राप्त करता है । कतिपय प्राणियों को गुरु का योग भी मिलता है, उस गुरुमहाराज के उपदेश से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष रूप तत्वों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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