Book Title: Atmonnati Digdarshan
Author(s): Vijaydharmsuri
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 17
________________ ( १५ ) १ है, इस प्रकार कुल ५१ भेद हैं । उन भेदों का वर्णन नन्दी सूत्र, कर्मप्रकृति तथा कर्मग्रंथादि शास्त्रों में विवरण सहित किया गया है। जिज्ञासु मनुष्यों को चाहिए कि उन शास्त्रों का अवलोकन करें । दर्शनावरणीय कर्म-द्वारपाल के सदृश है । अर्थात् राजा के पास जाने में अटकानेवाला प्रतिहार राजा के दर्शन नहीं करने देता हैं, वैसे ही यह कर्म आत्मा और समस्त वस्तु तच्च का दर्शन ( सामान्या कार अवबोध ) होने से अटकाता है । परन्तु जैसे जैसे इस कर्म की गति मंद होती जाती हैं, वैसे वैसे उस के प्रमाण में पदार्थ दर्शन स्फुरित होता है, और जिस समय इस कर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है, तबही केवल दर्शन प्रकाशित होता है । इस दर्शनावरणीय कर्म के चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधि दर्शनावरणीय, और केवल दर्शनावरणीय एवं निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि ये नव भेद हैं । देवदनीय कर्म -- तलवार की धार पर लगे हुए अर्थात् श को चाटते परन्तु जिह्वा कटती है, मधु (शहत ) के सदृश है । हैं तो स्वाद मालूम होता है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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