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(२३) हवे आव्यो जोधपुरना संघे पण्डित रूपविजयजीने लखेल पत्र. पत्रना आरम्भे गुरु माटे लखवामां आवेलां विशेषणो (१ थी २७, अने ते पछीनां) गुरुनी तात्त्विक-आन्तरिक भूमिकाना परिचायक छे, तो लखनार आत्माओनी पण तत्त्वरुचिनां द्योतक छे. ते विना 'अंतर उपयोगी, अंतरंग उपयोगरूप साध एक साधन अनेक ईण रिते सुध मार्गना परूपक, आत्मतत्त्वना रसीया' आवां तात्त्विक विशेषणो न लखाय. वळी, गद्य भाग पछीना पांच दूहा वांचो ! गुरु केवो 'सबद' (उपदेश) आपे तेनुं जे कबीर साहेबने ज शोभे तेवी भाषापरिभाषामां बयान करवामां आव्यं छे, ते लेखकनी अने गुरुनी उच्च आध्यात्मिक भूमिका विषे संकेत आपी जाय छे. 'सबद जुहायर तोल' - शब्दनुं जवेरात तोल अने ले !
पं. रूपविजयजी आत्मार्थी साधक पुरुष हता. तेमनाथी अनेक लोको समाधान प्राप्त करता. आ पत्रमा पण प्रश्नो लख्या होवानी वात छे ज. आ पत्रनां चित्रो बहु सोहामणां छे. ते प्रगट थवां जोईए. आ अङ्कमां तेना बे चित्रांशो मुखपृष्ठो पर आप्या छे.
(२४) हवेनो पत्र खरतरगच्छीय संघ (बीकानेर) तरफथी तेमना गच्छपतिने सं. १८९८ मां लखायेलो वि. पत्र छे. गुरु बङ्गालना मकसूदाबादमां छे. पत्र थोडीक शिथिल कही शकाय तेवी संस्कृत भाषामां छे. वच्चे गुरुनां विशेषणो प्राकृतमां पण लख्यां छे. 'पुनश्च श्रावकवर्ग: श्रीपूज्यजितां घनाघनवद् वाटं पश्यति' - आ वाक्यमां 'मेघनी जेम वाट जुए' एम कहेवा माटे सीधो 'वाट' शब्द ज जोतरी दीधो छे, ए भ्रष्ट संस्कृतनी निशानी छे. आवा प्रयोगो थकी ज संस्कृत भाषानी 'जैन संस्कृत' नामे शाखा ऊभी थई छे.
(२५) पछीनो, आ खण्डमांनो छेल्लो पत्र मुनि सुखलालजी एटले के सौख्यविजयजी उपर एक गृहस्थे लखेल पत्र छे. मालवीमिश्रित हिन्दी भाषामां आ पत्र लखायो छे. पत्रमा १ थी २७ सुधीना अङ्क हता ते भाग, पुनरावर्तनो टाळवाना हेतुथी गाळी नाख्यो छे. पत्रलेखक संसारना भीरु होय अने गुरु प्रत्ये तीव्र अहोभाव
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