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प्रश्नोत्तर]
243} आंतरिक भावों से माता-पिता एक दिन के लिए राजा बनने का प्रस्ताव रखते हैं। मोहाधीन माता-पिता आज भी विरक्तविरक्ता का शृङ्गार दुल्हे-दुल्हन से भी बढ़कर करते हैं। उनकी आँखों को तृप्ति मिलती है, मन आनन्दित होता है, साथ ही विरक्त की विरक्ति, मोह-विजय की दृढ़ भावना भी परिलक्षित हो जाती है।
प्रश्न 5. 'संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई' का क्या आशय है?
उत्तर-संयम के अभाव में भी तप होता है, जिसे बाल तप कहते हैं। लक्ष्य के अभाव में की गई साधना मूल सहित दु:खों का अंत नहीं कर सकती। लक्ष्य की ओर गतिशील होते ही संयमपूर्वक तप की साधना प्रारंभ हो जाती है। जहाँ भी संयम है, वहाँ सकाम निर्जरा अर्थात् तप की नियमा है। अस्तु संयमेन तपसा, संयमपूर्वक तप साधना आत्महितकारी है।
प्रश्न 6. कुलदेवी या कुलदेवता की सांसारिक कार्यों में सहायता प्राप्त करने से सम्यक्त्व में दोष लगता है अथवा नहीं?
उत्तर-कुलदेवी या कुलदेवता की सांसारिक कार्यों में सहायता प्राप्त करने में यद्यपि सम्यक्त्व में स्पष्ट रूप से कोई दोष नहीं बताया, तथापि यह प्रवृत्ति देव सहायता रूप होने से प्रशंसनीय एवं उचित नहीं कही जाती है। देवादि की सहायता नहीं चाहना, यह श्रावक की उच्च कोटि है। कई बार कमजोर श्रावकों की भक्ति धर्म से भी अधिक इन कुलदेवी आदि पर हो जाती है। इत्यादि कारणों से उसकी समकित शिथिल एवं नष्ट तक हो सकती है। जैसे औषधोपचार से असाता का उदय रूककर साता की उदीरणा हो जाती है, वैसे ही देव भी साता-असाता की उदीरणा में निमित्त बन सकते हैं। शरीर में रोगातंकों का प्रवेश भी करा सकते हैं एवं शरीर से रोगातंक निकाल भी सकते हैं। देव आराधना के लिए अट्ठम तप की आराधना करते समय कृष्ण एवं अभयकुमार के समकिती होने में बाधा नहीं आती है।
प्रश्न 7. सोमिल पर गजसुकुमाल मुनि को देष नहीं आया, किंतु कृष्ण महाराज को देष आ गया, इसका क्या कारण है?
उत्तर-गजसुकुमाल मुनि ने शरीरादि का राग छोड़ दिया था, इसलिए उन्हें सोमिल पर द्वेष नहीं आया, किंतु कृष्ण महाराज का गजसुकुमाल मुनि पर राग था, इसलिए सोमिल पर द्वेष जागृत हो गया।
प्रश्न 8. एक ही अंधकवृष्णि पिता और धारिणी माता के अठारह पुत्रों का वर्णन दो वर्गों में दिया गया है एवं सागर, समुद्र, अक्षोभ और अचल इन चार नामों में साम्य है। अत: जिज्ञासा होती है कि क्या ये सभी सहोदर भ्राता थे?
उत्तर-अंतगडदशा सूत्र के प्रथम एवं द्वितीय वर्ग के 18 ही अध्ययनों के लिए प्रकार की मान्याएँ प्रचलित हैं-1. श्रावक दलपतरायजी प्रमुख दोनों वर्गों में सादृश्य होने से प्रथम वर्ग को दसों व्यक्तियों के अंधकवृष्णि के पुत्र और धारिणी रानी के अंगजात सहोदर भाई मानते हैं और दूसरे वर्ग के आठों कुमारों को प्रथम वर्ग के दसवें अध्ययन में वर्णित विष्णु (पाठांतर-वृष्णि) कुमार के पुत्र अर्थात् अंधकवृष्णि के पौत्र मानते हैं।
दूसरी मान्यता-पूज्य श्री जयमलजी महाराज प्रमुख प्रथम वर्ग के दसवें अध्ययन का नाम वृष्णिकुमार नहीं मानकर 'विष्णुकुमार' मानते हैं और द्वितीय वर्ग में वर्णित वृष्णि को अंधकवृष्णि मानकर अठारह ही कुमारों को सहोदर भाई मानते हैं। जैसा कि उनके द्वारा रचित बड़ी साधु वंदना में कहा है
गौतमादिक कुँवर, सगा अठारह भ्रात । सर्व अंधक विष्णु सुत, धारिणी ज्याँरी मात ।।55।।