Book Title: Antgada Dasanga Sutra
Author(s): Hastimalji Aacharya
Publisher: Samyaggyan Pracharak Mandal

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Page 288
________________ ह? { 260 [अंतगडदसासूत्र अपने बन्धन और अपनी स्त्री के साथ किये गये व्यभिचार से क्रुद्ध हो अर्जुन माली ने मुद्गरपाणी यक्ष की मूर्ति के प्रति ऐसे अविश्वास पूर्ण विचार प्रकट किये जिससे प्रेरित होकर ही मुद्गरपाणी यक्ष आया। अत: अर्जुन माली को तो पाप लगा ही। अर्जुन माली के उत्तेजना पूर्ण विचारों से मुद्गरपाणी यक्ष आवेश में आ गया और उसने आते ही सात प्राणियों की हत्या कर दी और आगे वह 163 (एक सौ तिरेसठ) दिन तक हत्या करता रहा । अत: यक्ष को भी पाप लगा। अर्जुन माली तीव्र कषाय के अधीन हो, सबसे अधिक उत्तेजित हुआ और यक्ष का भी मूल प्रेरक रहा। अत: यक्षावेश में पराधीन हो जाने पर भी मूल प्रेरणा के कारण उसे सबसे अधिक वध करने वाला मानना चाहिए। फिर जैसा ज्ञानी स्वीकार करें, वही तथ्य है। प्रश्न 45. शत्रुजय पर्वत पर अंतकृत सूत्र के अनुसार कई जीव सिद्ध हुए हैं, फिर उसे तीर्थ मानने में क्या बाधा है ? उत्तर-शत्रुजय पर्वत पर अनेक जीवों के सिद्ध होने की बात सही है। पर ऐसी भूमि कौनसी है, जहाँ कोई जीव सिद्ध न हुआ हो । अत: जीवों के सिद्ध होने भर से किसी क्षेत्र को तीर्थ मान लेना उचित प्रतीत नहीं होता । तीर्थ का अर्थ तारने वाली भूमि या जल से ऊपर का भूभाग है अर्थात् जिसके द्वारा तिरा जाय, उसे तीर्थ कहते हैं । तिराने वाली भगवान की वाणी, 'तीर्थ' है या उसे सुनाने वाले साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाएँ तीर्थ हैं। परन्तु शत्रुजय पर्वत किसी को तिराता नहीं। अत: उसे तीर्थ नहीं माना जा सकता । सन्तों के चरण स्पर्श और साधना से वह पवित्र भूमि कही जा सकती है। एकान्त शान्त होने से यह भी कल्याण साधन में निमित्त हो सकती है ? वन्दनीय नहीं। यदि जीवों के सिद्ध होने के कारण ही किसी क्षेत्र को तीर्थ मानना हो, तो सम्पूर्ण अढ़ाई द्वीप को ही तीर्थ मान लेना चाहिए क्योंकि अढ़ाई द्वीप को एक अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी भूमि भी ऐसी नहीं है, जहाँ से कोई सिद्ध न हुए हों। पन्नवणा सूत्र के सोलहवें पद में इसका स्पष्ट उल्लेख है। शत्रुजय को तीर्थ मानने वाले भी भगवान नेमिनाथ के शासन में शत्रुजय पर कई जीव सिद्ध हुए। इसलिए ही शत्रुजय को तीर्थ नहीं मानते हैं, किन्तु अनादि काल से इसको तीर्थ मानते आए हैं, इसलिए तीर्थ मानते हैं । परन्तु यह मान्यता मिथ्या है क्योंकि शत्रुजय पर्वत शाश्वत नहीं है। अशाश्वत पर्वत अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे की समाप्ति पर उठने लगते हैं और पाँचवे आरे की समाप्ति पर पुनः भूमिसात् हो जाते हैं। मध्यकाल में भी इनमें घट-बढ़, बनाव-बिगाड़ और चल-विचलता होती रहती है। फिर शास्त्र में मागध, वरदाम और प्रभास को जैसे तीर्थ नाम से बतलाया, वैसे शत्रुजय को शास्त्र में कहीं तीर्थ नहीं कहा है। यह तो पश्चात्कालवर्ती लोगों ने सामाजिक प्रभुता और क्षेत्र की महिमा बढ़ाने को तीर्थ रूप में इसकी स्तवना की है। प्रश्न 46. भिक्षा के लिए "एक घर में एक दिन में एक बार से अधिक जाना आगम विरुद्ध है' क्या यह कथन सही है? उत्तर-यह कथन सही नहीं है। दशवैकालिक, आचारांग सूत्र आदि में भिक्षा की विधि का वर्णन है। वहाँ प्रतिदिन एक घर में भिक्षा के लिए जाने को नित्यपिंड नामक अनाचीर्ण बतलाया है। एक दिन में घर में दो बार, तीन बार जाने का निषेध नहीं है। कतिपय परम्पराएँ अंतगड़ सूत्र में वर्णित देवकी महारानी के प्रसंग को लेकर एक घर में एक दिन में दो-तीन बार जाने का निषेध करती हैं, किन्तु गहराई से देखा जाय तो विदित होगा कि देवकी महारानी खुद जानकार श्राविका थी।

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