Book Title: Anekantvad Pravesh
Author(s): Haribhadrasuri, Hemchandrasuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
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वैराग्यनीरजलधे! निकटस्थसिद्धे!, संसारतारणतरी शमसौख्यशाली। लोकोत्तरास्वनितदर्शितसार्वकक्षः, श्रीप्रेमसूरिरवताद्भवरागनागात् ॥५॥ ऐदंयुगीनसमयेऽपि महाचरित्रः, कन्दर्पदर्पहरणः परिपूर्णशीलः । पापारपङ्कजलजं जलजं यथाऽहो !, श्रीप्रेमसूरिरवताद्भवरागनागात्॥६॥ भक्तेषु रञ्जितमना न बभूव सूरिभक्तां तु नैव कृतवान् वनितैकभीरुः। शिष्याः कृता नच निजा विगतस्पृहेण, श्रीप्रेमसूरिरवताद्भवरागनागात्॥७॥ मुग्धोऽस्मि ते गुणसमुद्रतलं यियासु
हिं तव स्तुतिकृतेऽस्मि पटुप्रतिभः । नाऽहं भवत्पुनितपादरजोऽप्यरेऽस्मि, कल्याणबोधिफलदातृतरो! नतोऽस्मि॥८॥
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