Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 5
________________ सम्पादकीय मानव धर्म : समय की पुकार — डॉ. जयकुमार भवबीजाङ्कुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागताः यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै । । जैन आज चतुर्दिक् हिंसा का प्रसार बढ़ रहा है । पदलोलुपता एवं परिग्रहलिप्सा के चक्कर में फसा मानव सिद्धान्तहीन होकर जघन्य से जघन्य पाप करने में संकोच नहीं कर रहा है । जो वैज्ञानिक साधन मानवीय कल्याण के लिए हो सकते थे, उन्हीं से हिंसा को क्रूरतम रूप दे दिया गया है। मानव के जीवन में शान्ति ढूँढ़ने पर भी कहीं दृष्टिगोचर नहीं है । दैनन्दिन जीवन संघर्षमय हो गया है । शान्ति के नाम पर असीमित धन खर्च किया जा रहा है, नरसंहार जैसी अनैतिक प्रवृत्तियों का आश्रय लिया जा रहा है। फिर भी हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, जमाखोरी एवं शोषण जैसी दृष्प्रवृत्तियाँ बढ़ती ही जा रही हैं। आज मानव से ही मानव को जितना बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है, उतना बड़ा खतरा किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं है । सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर ने लिखा है- “ आज देश में धन वैभव के मूल्य बढ़ गये हैं और नैतिकता के मूल्य शून्य हो गये हैं । गरीबी की गरिमा, सादगी का सौन्दर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनन्द-ये सब हमारे आचरण में से पतझर के पत्तों की तरह झर गये हैं । आज समाज की सारी अशान्ति, सारे संक्लेश, क्या इसी वैचारिक पतझर का परिणाम नहीं है?" I इस विषम परिस्थिति का इलाज केवल धर्मज्ञों के पास ही है । धर्म का एक पक्ष यदि व्यक्तिवादी हो सकता है तो उसके अनेक पक्ष सामाजिक हैं । सम्पूर्ण मानवों की पीड़ा की विमुक्ति धर्म का सामाजिकPage Navigation
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