Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ अनेकान्त 59/4-2 अहिंसा का चाहते हैं और अहिंसा को पालते नही हैं। हिंसा का फल हम नहीं चाहते हैं, पर हिंसा में प्रयासपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं कहा भी गया है "पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः । फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नतः।।" यह कथमपि संभव नही है कि हम बबूल का बीज बोयें और उससे उत्पन्न वृक्ष में आम के फल लगें। अतः हमें अहिंसा की सूक्ष्म विचारणा की अपेक्षा स्थूल रूप से अहिंसा का परिपालन करने के लिए तेरे-मेरे की भावना त्यागनी होगी। प्रसिद्ध मानवतावादी सन्त श्री गणेश प्रसाद वर्णी का कहना है कि- "जानने के लिए तीन लोक हैं। चाहे जितना जानते रहो। त्यागने के लिए तीन ही विकार हैं-राग, द्वेष और मोह। ये छूट जायें तो संसार की सारी व्याधियाँ छूट जायें।" धर्म की व्याख्यायें अव जन-हित में करने की आवश्यकता है। अन्य मनुष्यों के साथ वैसा व्यवहार करना धर्म है, जैसा व्यवहार हम दूसरों के द्वारा अपने साथ चाहते हैं। भगवान महावीर के उपदेश में पदे-पदे प्राणीमात्र के कल्याण का भाव है। आचार्य समन्तभद्र ने महावीर के धर्मसंघ को सभी प्राणियों के दुःखों का अन्त करने वाला तथा सभी का कल्याण करने वाला तीर्थ कहा है "सर्वापदाम् अन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव।" जैन आगमों में वर्णित कुलधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और गणधर्म धर्म की सामाजिक सापेक्षता को स्पष्ट करते हैं। सर्वोदय तीर्थ का तात्पर्य है समता। समता का भाव धर्म है और विषमता अधर्म । भगवान् महावीर समता के आराधक थे, कोई समाज सुधारक नहीं। अतः यह कहना कि जैनधर्म का उदय वैदिक धर्म के विरोध में हुआ, कथञ्चित् भी यथार्थ नही है। आचार्यों का कथन है कि जगत् में नाना

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