Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 6
________________ अनेकान्त 59/1-2 पक्ष है। पूर्वाग्रहों को छोड़कर यदि सभी धर्मों के जानकार समाज का मार्गदर्शन करें तथा बुनियादी रूप से अविवादित अहिंसा, अपरिग्रह, समन्वय, उदारता आदि उदात्त धार्मिक तत्त्वों की अनिवार्यता को समझायें तो कोई कारण नहीं कि मनुष्य पुन शान्तिपूर्ण जीवन न विता सके। धर्म से हमारे जीवन में मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च जैसी पवित्रता एवं चन्दन जैसी महक आ सकती है। शान्त एवं तनावहिन जीवन जीने के लिए हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा। महाभारत में तो कुरुक्षेत्र के युद्ध की वात हम केवल पढ़ते हैं, पर वास्तविकता यह है कि आज हम सभी का हृदय कुरुक्षेत्र बना हुआ है। इसका कारण तेरे-मेरे की विचारणा है। राग-द्वप आदि विकृतियों को हटाकर इसे धर्मक्षेत्र बनाने की आवश्यकता है। एक महापुरुप का यह कश। सर्वथा समीचीन ही है कि-"विचार कितने ही अच्छे क्यों न हों यादे तदनुकूल आचरण नहीं है तो वे निरर्थक हैं।' मानव सृष्टि का सबसे विवेकशील प्राणी है। इसी कारण उसमे सुख की आकांक्षा के साथ सुख प्राप्त करने का प्रयास भी पाया जाता है यही प्रयास जब व्यक्तिवादी पक्ष को छोड़कर सामाजिक सुख के लिए किया जाता है, तो वह मानव धर्म कहलाता है। यह दुराग्रह एव पथव्यामोह से रहित होता है। पंथव्यामोह का कोई विना मानव धम अपनी सार्थकता सिद्ध नहीं कर सकता। धर्म विराट हे ३२ हिन्दू, जेन वौद्ध, ईसाई, मुस्लिम की सीमाओं में नही वांधा जा सकता। जो बाधा जा सकता है, वह पथ या संप्रदाय हा सकता है, धर्म नहीं। धर्म तो सीमाओं से परे है। पथ को अपनी महत्ता हा सकती हैं, पर सामाजिक कल्याण के क्षेत्र में यह सीमा हितकारी नहीं है। दुनियाँ मे हिसा सबसे बड़ा पाप है। यदि धम के नाम पर हिता का आश्रय लिया जाये गा इससे बड़ा पाप तो काइ हो ही नही सकता, वह तो महापाप है। अहिंसा की प्रतिमा के बिना मानवीयता को कल्पना दुराशा मात्र है। अहिंसा एक सराफ एवं व्यावहारिक जीवन

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