Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 19
________________ ११ वर्ष ३३, कि.. अनेकान्त [पत्र ११वां प्राप्त किनारे त्रुटित] इतिहास और स्थल भ्रमण से रचयिता को बड़ा प्रेममा उपर्युक्त ग्रन्थ का उल्लेख जिनप्रभसूरि जी ने व उनके इन्होंने अपने जीवन में भारत के बहुत से भागों में परि-- समकालीन रुद्रपल्लीय सोमतिलकसूरि रचित लघुत्सव भ्रमण किया था। गुजरात, राजपूताना, मालवा, मध्य टोकादि में प्राप्त है । यह टीका सं० १३९७ में रची गई प्रदेश, वराङ, दक्षिण, कर्णाटक, लंग, बिहार कोशल, पौर राजस्थान प्राध्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर से प्रकाशित अवध, युक्तप्रान्त और पंजाब प्रादि के कई पुरातन भोर है। बीकानेर में वृहद् ज्ञान भंडार में हमे बहुत वर्ष पूर्व प्रसिद्ध स्थलों की इन्होंने यात्रा की थी। इस यात्रा के इस ग्रन्थ का कुछ अंश प्राप्त हुमा था जिसे 'जैन सिद्धान्त समय उस स्थान के बारे में जो जो साहित्यगत और भास्कर' एवं 'जन सत्यप्रकाश' में प्रकाशित किया। उसके परम्पराश्रुत बातें उन्हे ज्ञात हुई। उनको उन्होंने शंक्षेप बार उपर्युक्त १३वीं शती की प्रति का मन्तिम पत्र प्राप्त में लिपिबद्ध कर लिया। इस तरह उस स्थान या तीर्थ हुमा। इस प्राप्त अंश की नकल ऊपर दी है। इस प्रन्थ का एक कल्प बना दिया और साथ ही ग्रन्थकार को राज की पूरी प्रति का पता लगाना प्रावश्यक है। किसी संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में, गद्य पौर पद्य दोनों भी सम्जन को इसकी पूरी प्रति की जानकारी मिले तो ही प्रकार से ग्रन्थ रचना करने का एक सा अभ्यास होने हमें सूचित करने का अनुरोध करते हैं। के कारण कभी कोई कल्प उन्होंने संस्कृत भाषा में लिख श्री जिनप्रभसूरि जी मोर उनके विविध तीर्थ कल्प के दिया तो कोई प्राकृत में। इसी तरह कभी किसी कल्प की संबंध मे मुनिजिनविजय जी ने लिखा है-ग्रन्थकार 'जिनप्रभ रचना गद्य मे कर लो तो किसी की पद्य मे। "प्रस्तुत सूरि' अपने समय के एक बड़े भारी विद्वान और प्रभावशाली विविध जीवकल्प का हमने हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवा थे। जिनप्रभसूरि ने जिस तरह विक्रम की सतरहीं शताब्दी दिया है। में गल व सम्राट अकबर बादशाह के दरबार मे जैन जिनप्रभसरि का विधिप्रपामन्य भी विधि-विद्वानों का जगद्गुरू हीरविजयसूरि (पौर युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि) बहत वडा और महत्वपूर्ण संग्रह है। जैन स्तोत्र मापने ने शाही सम्मान प्राप्त किया था उसी तरह जिनप्रभसूरि सात सौ बनाये कहे जाते हैं, पर अभी करीब सौ के लगभग ने भी चौदहवी शताब्दी में तुगलक सुल्तान मुहम्मदशाह के उपलब्ध हैं । इतने अधिक विविध प्रकार के मोर विशिष्ट दरबार में बड़ा गौरव प्राप्त किया। भारत के मुसलमान स्तोत्र अन्य किसी के भी प्राप्त नही है। कल्पसूत्र की बादशाहों के दरबार में जैन धर्म का महत्व बतलाने वाले "सन्देह विवोषि" टीका स. १३६४ में सबसे पहले और उसका गौरव बढाने वाले शायद सबसे पहले ये ही प्रापने बनाई। स० १३५६ मे रचित द्वयाश्रयमहाकाव्य प्राचार्य हुए। प्रापकी विशिष्ट काव्य प्रतिभा का परिचायक है। स० विविधतीर्थकल्प नामक प्रस्थ जैन साहित्य की एक १३५२ से १३६० तक की मापकी पचासो पचासो रचनायें विशिष्ट वस्तु है। ऐतिहासिक पौर भौगोलिक दोनों स्तोत्रों के अतिरिक्त भी प्राप्त हैं। सूरिमंत्रकल्प एवं प्रकार के विषयों की दृष्टि से इस ग्रन्थ का बहुत कुछ चलिका ह्रौंकारकल्प वर्द्धमानविद्या और रहस्यकल्पद्रुम महत्व है। जैन साहित्य मे ही नही, समग्र भारतीय साहित्य मापकी विद्यामों व मंत्र-तंत्र सम्बन्धी उल्लेखनीय रचनायें में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ ममी तक ज्ञात नहीं हैं। प्रजितशांति, उवसग्गहर, भयहर भनुयोग चतुष्टय, हमा। यह अन्य विक्रम की चौदहवीं शताब्दी मे जैनधर्म महावोर स्तब, षडावश्यक, साधु प्रतिकमण, विदग्ध मुख. के जितने पुरातन पौर विद्यमान तीर्थ स्थान थे उनके मंडन मादि अनेक प्रन्यों की महत्वपूर्ण टीकार्य माप ने सम्बन्ध में प्रायः एक प्रकार की "गाइड बुक" है इसमें बनाई। कातन्त्रविभ्रमवत्ति, हेमप्रनेकार्षशेषवृत्ति, बणित उन तीनों का सक्षिप्त रूप से स्थान वर्णन भी है रुचादिगण वृत्ति प्रादि पापको भ्याकरण विषयक रचनायें पौर यथाज्ञात इतिहास भी है। हैं। कई प्रकरण पोर उनके विवरण भी मापने रचे हैं. प्रस्तुत रचना के अवलोकन से ज्ञात होता है कि उन सबका यहाँ विवरण देना संभव नहीं।

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