Book Title: Anekant 1980 Book 33 Ank 01 to 04
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ सबाट महम्मद तुगलक और महान् न शासन-प्रभावक भी बिनभरि ने लिखा है जिसमें जिनप्रभसूरि भोर जिनदेवसूरि को मिश्रित संग्रह प्रति हमारे संग्रह में है, पर वह अपूर्ण हो -शासन प्रभावना व मुहम्मद तुगलक को सविशेष प्रभावित प्राप्त हुई। हम उपदेश सप्तति, प्रबन्ध-पंचशती एवं प्रबन्ध करने का विवरण है। ये दा हा कल्प जिनप्रभसूरिजी की संग्रहादि प्रकाशित प्रबन्धों को देखने का पाठकों को विद्यमानता में रचे गए थे। इसी प्रकार उन्ही को सम- अनुरोध करते हैं जिससे उनके चामत्कारिक प्रभाव भोर कालीन रचित जिनप्रभसूरि गीत तथा जिनदेवसूरि गीत महान व्यक्तित्व का कुछ परिचय मिल जायगा। जिन हमें प्राप्त हुए जिन्हे हमने स. १६६४ मे प्रकाशित अपने प्रभसूरि जी का एक महत्वपूर्ण मंत्र-तंत्र संबंधी ग्रन्थ रहस्यऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह मे प्रकाशित कर दिया है। कल्पद्रम भी अभी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हुमा, उसकी उनमे स्टष्ट लिखा है सं० १३०५ के पौष शुक्ल ८ शनि- खोज जारी है। सोलहवीं शताब्दी की प्रति का प्राप्त बार को दिल्ली में महम्मदशाह से श्रोजिनप्रभसूरि मिले मन्तिम पत्र यहां प्रकाशित किया जा रहा है। 'रहस्य ने उन्हें अपने पास बठा कर मादर दिया। कल्पद्रुम' का प्राप्त प्रशसुरिजी ने नवीन काव्यो द्वारा उसे प्रसन्न किया। सुलतान त सघ प्रत्यनीकानां भयंकरादेशाः। करीयं जयः। ने इन्हें धन-कनक मादि बहुत सी चीजें दो मोर जो स्वदेशे जयः परदेशे पपराजितत्वं तीर्थाविप्रत्यनीकमध्ये चाहिए, मांगने को कहा पर निरीह सूरिजी ने उन एतस्वयमस्य महापीठस्य स्मरणेन भवति । ह्रां महमातंगे प्रकल्प्य वस्तुमो का ग्रहण नहीं किया। इससे विशेष शचि चंडाली अमुक दह २ प २ मथ २ उच्चाटय प्रभावित होकर उन्हें नई बस्ती मादि का फरमान दिया २ हंफट स्वाहा ॥ कृष्ण खडी खंड १०८ होमयेत् पौर वस्त्रादिद्वारा स्वहस्त से इनकी पूजा की। उच्चाटनं विशेषतः । सपन्नी विषये । ॐ रक्त चामुंहेनर स. १९८६ मे पं० लालचन्द भ. गांधी का जिनप्रम- शिर तुड मुह मालिनी पम्की पाकर्षय २ ह्रीं नमः । सूरि पौर सुलतान मुहम्मद सम्बन्धी एक ऐतिहासिक प्राकृष्टि मत्र सहस्रत्रयजापात सिद्धिः सिद्धिः पश्चात् निबन्ध 'जन' के रौप्य महोत्सव अंक में प्रकाशित हमा। १०८ माकर्षयति । ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविधे येन जिसे श्री हरिसागर सूरिजी महाराज की प्रेरणा से परि. केनचित् पापं कृतं कारितं अनुमतं वा नश्यतु तत्पापं तत्रव बद्धित कर पंडितजी ने ग्रन्थ रूप मे तैयार कर दिया, जिसे गच्छतु" स. १८६५ में श्रीजिनहरिसागरसूरि ज्ञान भण्डार, लोहावट ॐ ह्रीं प्रत्यगिरे महाविधे स्वाहा वार २१ लवणडली से देवनागरी लिपि व गुजराती भाषा में प्रकाशित किया बच्चा पातुरस्योपरि भ्रामयित्वा कांजिके क्षिप्त्वा । तुरे गया। ढास्यते कार्मण भद्रो भवति । प्रतिभासम्पन्न महान विद्वान जिमप्रभसरिजी की दो उभयलिंगी बीज ७ साठी चोखा ६ पली गोष, प्रधान रचनाएं विविधतीर्थकल्प पोर विधि मार्ग-प्रपा मुनि ऋतुस्नाताया: पान देयं स्निग्ध मधुरभोजनं । ऋतुगोंजिनविजयजी ने सम्पादित की है, उनमे से विधिप्रपा मे त्पत्तिप्रधानसूकडिदुवारन् वात् एकवर्णगोदुग्धेन पीयते हमने जिप्रभसूरि सम्बन्धी निबन्ध लिखा था। इसके बीच गर्भाधानाहिन ७५ प्रनंतर दिन ३ गर्भव्यत्ययः ॥७॥ हमारा कई वर्षों से यह प्रयत्न रहा कि सूरि महाराज संवत् १५४६ वर्षे धावण सुदि १३ त्रयोदशी दिने सम्बन्धी एक अध्ययनपूर्ण स्वतन्त्र वृहग्रह प्रकाशित गुरौ श्रीमहपमहादुर्गे श्री खरतरगच्छे श्री जिनभद्रसूरि किया जाय पोर महो० विनयसागर जी को यह काम पट्टालकार श्री जिनचन्द्रसूरि पट्टीदया चलचूला सहस्रकसौंपा गया। उन्होंने वह ग्रन्थ तयार भी कर दिया है, साथ रावताबतार श्री संप्रतिविजयमान श्रीजिन समुद्रसूरि विजयही सूरि जी के रचित स्तोत्रों का संग्रह भी संपादित कर राज्ये श्री वादीन्द्रचक्र चूणामणि श्री तपोरत्न महोपाध्याय रखा है। हम शीघ्र ही उस महत्वपूर्ण ग्रन्थ को प्रकाशन । विनेय वाचनाचार्य वर्थ श्री साधराज गणिवराणामाबेशेन करने में प्रयत्नशील हैं। शिश्यलेश.. लेखि श्री रहस्य कल्पदममहाम्नाय: Unon सरि जी सम्बन्धी प्रबम्बों को एक सतरहवी शती की श्रेयोस्तु । ५० भक्तिवल्पम गणिसान्निध्येन ॥

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