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पचयादि
किरप.११११२] श्रीहीराचन्द्रजी बोहराका नम्र निवेदन तो कर फेवली अथवा जिन देखने 'धर्म' या संचारित्र' कहा वाक्य पत्यपादाचार्यकैः । निमेंसे में उन्होंने यह
जैसा कि कुछ निम्न वाक्योंसे भी जाना जाता है। सूचित किया है कि मुनियोंके दृशा प्रकास धर्मकी और गृहस्यों के १.धर्मधर्मेश्वराविद्गअभ्युदर्यफलतिसर्मः(रत्नकरगड) ग्यारह मारधर्मकी देशना करते हुए कीवीरजियने तीस वर्ष २. असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितं। बुक विहार किया है, और दूसरे में यह प्रतिपादित किया वद-समिदि-गुत्तिरूवं ववहारण्या इजिणभरिणयं (दुव्यसं०) है कि तीन गुधियों, पाँच ममिनियों और पंजत्रों के रूषों को
शएवं सावधम्म सनमचरणं, उद्वेसियं सयल। तेरह प्रकारका चारित्र ..(धर्म) है नुह बीरजिनेन्द्र के द्वारक सुद्धसंजमचरणं जइधम्म णिक्कलं वोच्छे ।। (चारित्तपा०) निर्दिष्ट हुआ है। . . ४. दाएं पूजामुक्खं सावयधम्मोण सावगो तेण विणा-
उपसंहार माणज्मयणं मुक्खं जइधम्मं तं विणा सोगिरियणसार) ५. एयारसदाय, म मन भाषियं हमारे निकाय चल मगर नामक प्राचीनतम पाठमें सागारणगाणं उत्तमसुहसपजुत्तहि ॥ (बारसाणुपे०) 'केवलि-पएणत्तो धम्मो मंगले 'केवलिपएणत्तो धम्मो णिच्छयणएण जीवो सागारणगारधम्मदो भिएगी।" लौगुत्तमो' और 'केवलिपएणतं धम्म सरणं पव्वज्जामि' ६. दशविधमनगाराणमेकादशधोत्तर तथा धर्म । हन अक्योंके द्वास, फेवलि दिन-प्रणोताधर्मको मंगलभूत देशयमानी व्यहरंतूत्रिंशद्वर्षाएयूथ जिनेन्द्रः (निर्वाणभकि) और लोकोतम मानने हुए. उमा शरण में प्राप्त होने की तिनः संत्तमगुप्तयस्तनमनोभाषानिमित्तोदयाः जित्य भाव की जाती । मामला पह कैदा होता है कि
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श्री कुन्दकुन्दसौर स्वामी समन्तभदादि। महाम् प्रत्याकि चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्व न द्रिष्दं परै शाचीन ग्रन्थों में, श्रावकों तथा मुनियों के जिस धर्मकी देशनारोचारंपरिमेष्ठिनोजिनपतवार नमामो वयम (चारित्रभः) प्ररूपणा की गई है और जिसका स्वाट साभाल कपर उद्धत 1. इससे पहले,नं-केको काम स्वामी समन्तभदके हैं बालयोंसे होता है वह केवलि-जिनम्नशीत हवा कि नहीं जिनमें यह सूचित किया गया है कि स्नकसाबमें, निसर्म- यदि है तो वह धर्म जिनशमनकामना मासे जिनशासनले का वर्णन है बह-अमेवा (वीर-सद माननीकर) के द्वारा बाम से किया जा सकता है और से कानजीस्वामीके कहा गया है और साई, प्रसोचीगार्म अभ्युदय ससाकोसी से कयनको संगत कराया जा सकता है: मो. सम्यग्दृष्टिके कला है। दूसरे काय मिजम्माचार्यका है, जिसमें पूजा-दान-सत्पदिक सभभाको अधर्म हवाही बतलाता. अशमसे निवृति और सभसे, प्रवृत्तिको सच्चारित्र बतलामा प्रत्युव इसके जिनसामानमें बगहें धर्मससे प्रतिपादनकासी है और लिखा है कि वह समिति तथा अप्तिक रूपमें है निषेध करता है। और फलतः बन प्राचीन भाचार्यों पर और उसस्यबहारनायकी रहिस लिनेन्द्रले प्रतिपादन किया अन्यथा कथनका. दोषारोपण भी करता है जो उसे जिनोपदिष्ट है। तीसरे, चौथे और पाँचवें नम्बरके वाक्य श्रीकुन्दकुन्दा- धर्म बतला रहे हैं?.और यदि कानजी, स्वामीको इष्टिमें ग्रह खार्य-प्रणीत प्रन्थोंके है जिनमें पात्रतादि तथा एकादश सब,धर्म कवलिजिन-प्रशीत नहीं है, सब बहन को मंगाप्रतिमाओंके रूपमें प्राचारको प्रावधर्म, और महानवादि भूत है न बोकोचमा है और हमें इसकी शरणमें ही स्था दशलक्षणादिरूपाचारको मुनिधर्मके रूपमें निर्दिष्ट जाना चाहिए या इसे अपनाना चाहिए, ऐसी जानजी स्वामीकिया है। माथ ही, यह भी निर्दिष्ट किया है कि दान पूजा की यदि धारणा है और इसीस ने उसका सिमेध करके उसे श्रावकका मुख्य धर्म है-उसके बिना को श्रावक नहीं होता, गृहस्थों तथा मुनियोंसे छुड़ाना, हते है तो फिर,
और ध्यान तथा अध्ययन यतिका मुख्य धर्म है.उसके क्विा सखादायका जन्म-देस चाहते हैं. ऐसी-यदि कोई कल्पना कोई यति-मुनि नहीं होता। इसके मित्राय, बारसमणुपेक्खामें करे हो उसमें प्राचार्यकी कौलसी बात है जिससे कोइराज़ी यह भी प्रतिपादन किया गया है कि निस्त्वयनमसे जीव कुछ शुन्ध होकर. विरोधमें प्रवृत्त हुए.जान पड़ते है. वासकर सागार (गृहस्थ), अनगार, (मुनि)के धर्मसे भिन्न है ऐसी हालत में जब कि कानजीस्वामी अपना वक्तव्य वेकर सर्थात् गृहस्थ और मुनिका धर्म निश्चयजयका विषय नहीं कोई स्पष्टीकरण भी करना नहीं चाहते.? अन्योंकि जैनियों के है-बहु सब व्यवहारनयका हो विषय है । छठे-मातवें नंबरके हलमान तीनों सम्प्रदाय प्राचीन अन्धोंमें : निर्दिष्ट