Book Title: Anekant 1948 02 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Jugalkishor Mukhtar View full book textPage 3
________________ वार्षिक मूल्य ५) & वर्ष किरण २ 'विश्व तत्त्व-प्रकाशक Jain Education International ॐ अम् नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ तु तत्त्व-संघोतक वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम), सरसावा, जि० सहारनपुर माघ, वीरनिर्वाण - संवत् २४७३, विक्रम संवत् २००४ समन्तभद्र - भारती के कुछ नमूने युक्त्यनुशासन मद्याङ्गवद्भुत - समागमे ज्ञः इत्यात्म- शिश्नोदर - पुष्टि - तुष्टैनिंहीं-भयैर्हा ! मृदवः प्रलब्धाः ||३५|| शक्त्यन्तर- व्यक्रिदैव- सृष्टिः । For Personal & Private Use Only Fickla ****** 0: एक किरणका मूल्य ॥) 'जिस प्रकार मद्याङ्गों के मद्य के अङ्गभूत पिष्टोदक. गुड, धातकी आदि के समागम ( समुदाय) पर मदशक्तिको उत्पत्ति अथवा आविर्भूति होती है उसी तरह भूतोंके - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तत्त्वों के समागमपर चैतन्य उत्पन्न अथवा अभिव्यक्त होता है - वह कोई जुदा तत्व नहीं है, उन्हींका सुख-दुःख हर्ष-विषादविवर्त्तात्मक स्वाभाविक परिणाम विशेष है। और यह सब शक्तिविशेषको व्यक्ति है, कोई दैव-सृष्टि नहीं है । इस प्रकार यह जिनका — कार्यवादी विद्धकर्णादि तथा अभिव्यक्तिवादी पुरन्दरादि चार्वाकोंका - सिद्धान्त है उन अपने शिश्न (लिङ्ग) तथा उदरकी पुष्टिमें ही सन्तुष्ट रहनेवाले निर्लज्जों तथा निर्भयोंके द्वारा हा ! कोमलबुद्धि - भोले मनुष्य — ठगे गये हैं! !' व्याख्या—यहां स्तुतिकार स्वामी समन्तभद्रने उन चार्वाकोंकी प्रवृत्तिपर भारी खेद व्यक्त किया है। जो अपने लिङ्ग तथा उदरकी पुष्टिमें ही सन्तुष्ट रहते हैं - उसीको सब कुछ समझते हैं; 'खाओ, पीओ, मौज उ' यह जिनका प्रमुख सिद्धान्त है; जो मांस खाने, मदिरा पौने तथा चाहे जिससे - माता, बहिन, पुत्री से फरवरी १६४८. www.jainelibrary.orgPage Navigation
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