Book Title: Anekant 1945 Book 07 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ अनेकान्त [वर्ष ७ दया-दम-स्याग-समाधिनिष्टं नय-प्रमाण-प्रकृताञ्जमार्थम् । अधृष्यमन्यैरग्विलैः प्रवादैर्जिन स्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ युक्त्यनुशामने, श्री मन्तभद्रः __हे वीर जिन ! आपका मन-शामन-नय-प्रमाण के द्वारा वस्तु-तत्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और सम्पूर्ण प्रवादियोंम अवाध्य होनेक माथ माथ दथा (अहिंसा), दम ( मंयम), त्याग और ममाधि ( प्रशस्त ध्यान ) इन चारोंकी तत्परताको लिये हुए है। यही सब उसकी विशेषता है, और इमीलिये वह अद्वितीय है।' सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ -युक्त्यनुशामने, श्रीममन्तभद्र: 'हे वीर प्रभु ! आपका प्रवचन-तीर्थ-शामन-सर्वान्तवान है-मामान्य, विशेष, द्रव्य, पर्याय, विधि, निषेध, एक, अनेक, आदि अशेप धमों को लिये हुए है और वह गुण-मुख्यकी कानाको माथमे लिए हुए होनेसे सुव्यवस्थित है-उसमें असंगतता अथवा विगंधके लिये कोई अवकाश नही है-जो धो परम्पर अपेक्षाका नहीं मानते-- उन्हें मर्वथा निरपेक्ष बलाते हैं-उनके शासनमें किसी भी धर्मका अस्तित्व नहीं बन सकना और न पदार्थ-व्यवस्था ही ठीक बैठ सकती है। अतः आपका ही यह शामनतीथ सर्वदाग्बोका अन्त करनेवाला है, यही निग्न्त है--किमी भी मिथ्यादर्शन के द्वारा बण्डनीय नही है--और यही सब प्राणियों के अभ्युदयका कारण तथा आत्माके पूर्ण पभ्युदय (विकाम ) का साधक ऐमा 'मर्वादयतीर्थ' है। भावार्थ-- आपका शासन अनेकान्तके प्रभावसे मकल दर्नयों ( परस्पर निरपेक्षनयों ) अथवा मिथ्यादर्शनोंका अन्त (निग्मन) करनेवाला है और ये दुर्नय अथवा सर्वथा एकान्तवादरूप मिथ्यादर्शन ही मंमारमे अनेक शारीरिक तथा मानमिक दुःश्वरूप आपदाओं के कारण होते हैं, इमलिये इन दुर्नयरूप मिथ्यादर्शनोंका अन्त करने वाला होनेम आपका शामन ममस्त आपदाओका अन्त करनेवाला है, अर्थात जो लोग आपके शामनतीर्थ का आश्रय लेते हैं--उमे पूर्णतया अपनाते हैं. उनके मिथ्यादर्शनादि दर होकर ममस्त दुःख मिट जाते हैं। और वे अपना पूर्ण अभ्युदय (उत्कर्ष एवं विकाम) सिद्ध करनेमें समर्थ हो जाते हैं।' कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचतुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । स्वयि ध्रुवं खण्डितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः॥ -युक्त्यनुशासने श्रीममन्तभद्र: (हे वीर भगवन !) आपके इष्ट-शासनमे भरपेट अथवा यथेष्ट वेप रखनेवाला मनुष्य भी यदि समदृष्टि (मध्यस्थवृत्ति) हुआ उपपत्तिचक्षम---मात्मय के त्यागपूर्वक युक्तिमंगत समाधानकी दृष्टिम--श्रापके इष!-- शासनका--अवलोकन और परीक्षा करता है तो अवश्य ही उपहा मानशृङ्ग खण्डित होजाता है-सर्वथा कान्तरूप मिथ्यामतका आग्रह छूट जाता है और वह अभद्र अथवा मिथ्यादृष्टि होता हुआ भी सब ओरसे भद्ररूप एव सम्यग्दृष्टि बन जाता है--अथवा यूं कहिये कि आपके शासननीर्थका उपासक और अनुयायी हो जाता है।' - -

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 528