Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 294
________________ २८२ आनन्द प्रबचन | छठा भाग जिस प्रकार धागे में पिरोई हुई सुई गिर जाने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञानरूपी धागे से युक्त आत्मा संसार में नहीं भटकती। कहने का आशय यही है कि साधक को सर्वप्रथम धर्म के सारभूत सम्यक् ज्ञान को हासिल करना चाहिए । अन्यथा उसकी वही गति होगी जो तैरने की कला जाने बिना सागर में छलांग लगा देने वाले व्यक्ति की होती है । ध्यान से समझने की बात है कि जो व्यक्ति तैरने की कला नहीं सीख लेता है, और फिर भी सागर में कूद जाता है वह यद्यपि हाथ-पैर हिलाने की क्रिया तो बहुत करता है किन्तु वे ठीक नहीं होती अतः वह पुनः किनारे पर नहीं आ पाता और उसके अतल में समा जाता है। ठीक इसी प्रकार अज्ञानी साधक की स्थिति होती है । वह भी जीवन और जगत का रहस्य न जानने के कारण तथा तत्वों की जानकारी न कर पाने के कारण संवर और निर्जरा की कला यानी ज्ञान को नहीं जान पाता है । परिणाम यह होता है कि वह इस संसार-सागर को पार करने का प्रयत्न तो करता है और नाना क्रियाएँ धर्म के नाम पर किये जाता है । किन्तु वे सही नहीं होतीं, इसलिए वह संसार-समुद्र से पार नहीं हो पाता, उसी में गोते लगाता रहता है। सम्यक् चारित्र अभी हमने ज्ञान के महत्व पर विचार किया है तथा यह जाना है कि धर्म का सारभूत ज्ञान है । अब दूसरा प्रश्न हमारे सामने आता है कि ज्ञान का सार क्या है ? इसके उत्तर में निःसंकोच कहा जा सकता है कि ज्ञान का सार चारित्र या क्रिया है। ज्ञान तो हमने बहुत कर लिया पर अगर उसे अपने आचरण में नहीं उतारा यानी उसके अनुसार क्रिया नहीं की तो फिर उससे क्या लाभ होना है ? कोई व्यक्ति बाजार में घूमने निकलता है और पूरे दिन घूम-धूमकर प्रत्येक खाद्य पदार्थ की जानकारी कर लेता है। हर तरह की मिठाई एवं नमकीन कैसे बनता है तथा उसमें क्याक्या डाला जाता है, यह भी जान लेता है। किन्तु अगर उन पदार्थों में से वह कुछ खाता नहीं है तो भला उसका पेट कैसे भर सकता है ? कभी नहीं भर सकता । खाद्यपदार्थों के ज्ञान के साथ ही उसे खाने की क्रिया भी तो करनी पड़ेगी। अन्यथा उनका कोरा ज्ञान ही उसकी उदर पूर्ति कैसे कर सकेगा? यही हाल ज्ञान के पश्चात् चारित्र का है । यह सही है कि ज्ञान एवं दर्शन साधना की प्रथम दो सीढ़ियाँ हैं और वे भी मोक्ष के हेतु हैं किन्तु चारित्र तो मोक्ष का साक्षात कारण है । साधक भले ही कोटी का ज्ञान कर ले, अनेकों शास्त्र कंठस्थ कर ले, अध्ययन एवं चिंतन-मनन भी करे, पर अगर वह इन सबको अपने आचरण में न उतारे अर्थात क्रियान्वित न करे तो वह ज्ञान और चिन्तन-मनन उसे मोक्ष के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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