Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 292
________________ २८० आनन्द प्रवचन | छठा भाग कि धर्म का सार क्या है ? उत्तर में कहा गया है धर्म का सार ज्ञान है । जब तक तत्वों का ज्ञान नहीं होगा तब तक धर्म को आचरण में नहीं लाया जा सकेगा। ज्ञान के द्वारा ही व्यक्ति जीव, अजीव, आश्रम, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्षादि का ज्ञान करता है और इन सबका ज्ञान होने पर ही वह हेय, ज्ञेय एवं उपादेय को पहचान कर कर्मों की निर्जरा करता हुआ संवर के मार्ग पर बढ़ता है । ज्ञान की महिमा बताते हुए कहा भी हैतमो धुनीते कुरुते प्रकाश, शामं विधत्ते विनिहन्ति कोपम । तनोति धर्म निधुनोति पापं, ज्ञानं न कि कि कुरुते नराणाम् ॥ अर्थात्-ज्ञान अज्ञानरूपी तम यानी अन्धकार को दूर करता है, प्रकाश फैलाता है, शान्ति प्रदान करता है, क्रोध विनष्ट करता है, धर्म को विस्तृत बनाता है तथा पाप को धुनकर रख देता है। और इस प्रकार यह ज्ञान मनुष्य का क्या-क्या इष्ट-साधन नहीं करता ? यानी सभी कुछ करता है । ___ अभिप्राय यही है कि मानव सम्यक ज्ञान प्राप्त करने पर ही धर्म का यथार्थ रूप से पालन कर सकता है तथा अपनी साधना पर दृढ़ता से बढ़ता हुआ कर्मों से मुक्त हो सकता है । इस संसार में सम्यक् ज्ञान के अलावा और कोई भी वस्तु आत्मा का शाश्वत सुख प्रदान करने में समर्थ नहीं है। अध्यात्म प्रेमी पं. दौलतराम जी ने अपनी 'छहढाला' नामक पुस्तक में ज्ञानी और अज्ञानी के कर्मनाश के विषय में अन्तर बताते हुए लिखा है कोटिजन्म तप त4, ज्ञान विन कर्म मरे जे; ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति ते सहज टरै ते । मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो; पै निज आतमज्ञान बिना, सुख लेश न पायो । ज्ञानी और अज्ञानी में कितना भारी अन्तर बताया गया है ? कहा है-मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक् ज्ञान के अभाव में करोड़ों जन्मों तक तपश्चर्या करके जितने कर्मों का नाश कर पाता है, उतने कर्मों का नाश सम्यक्ज्ञानी साधक अपने मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को रोककर शुद्ध स्वानुभव से क्षण मात्र में ही नष्ट कर देता है। आगे कहते हैं कि यह जीव मुनियों के महाव्रतों को धारण करके उनके प्रभाव से अनन्त बार नवमें ग्रैवेयक तक के विमानों में भी उत्पन्न हो चुका है, किन्तु आत्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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