Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 337
________________ साधक के कर्तव्य ३२५ पहचान पाने के कारण वह कषायों के चक्रव्यूह में फँस जाती है और उनके द्वारा तैयार किये हुए कर्मरूपी शस्त्रास्त्रों से आघात पाती हुई जन्म-जन्मान्तर तक कष्ट पाती रहती है । बन्धुओ ! आत्मा को कर्म घेरे हुए हैं यह कोई नई बात नहीं है, आवश्यकता केवल इस बात की है कि आत्मा अपनी शक्ति को अब पहचान ले तथा संवर के मार्ग को अपनाकर कषायों को कम करते हुए उनकी शक्ति को क्षीण करती चली जाय । बँधे हु कर्मों के फल से तो नहीं बचा जा सकता, किन्तु संवर को अपनाकर नवीन कर्मों के बंधन से बचा जा सकता है । दूसरे शब्दों में, जो ललाट में लिखा जा चुका है उसे मेटने में तो कोई भी समर्थ नहीं होता पर नया लिखा जाने से बचा जा सकता है । संस्कृत के एक श्लोक में भी चन्द्रमा का उदाहरण देते हुए कहा है स हि गगनविहारी, कल्मषध्वंसकारी, दशशतकरधारी ज्योतिषां मध्यचारी । विधुरपि विधियोगाद् ग्रस्यते राहुणाऽसौ लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः । श्लोक में चन्द्र के विषय में कहा गया है कि वह गगनविहारी अर्थात आकाश में अधर विचरण करने वाला है, अन्धकार को नष्ट करता है, दस सौ यानी हजार किरण-रूपी हाथों का अधिकारी है तथा ज्योतिष शास्त्र में अपना बड़ा भारी महत्व रखता है । ज्योतिषी लोग कुण्डली देखते समय सर्वप्रथम चन्द्रबल देखा करते हैं । किन्तु इतना महत्व रखने वाला चन्द्र भी राहू के द्वारा ग्रसित होता है । राहू दो प्रकार के हैं । एक नित्यराहू, जो चन्द्रमा की एक-एक कला रोज खाता है और दूसरा पर्वराहू, जो पूर्णचन्द्र को खाता है । इसीलिए कहा गया है कि ललाट पर लिखे गये को मेटने में कौन समर्थ है ? तो हजार हाथ रखने वाला तथा सदा गगन में विचरण करने वाला चन्द्र भी जब राहू के द्वारा ग्रस लिया जाता है तो फिर जीवात्मा कर्म-फल भोगने से कैसे बच सकता है ? यानी नहीं बच सकता, उसे उनका फल भोगना ही पड़ता है । पर खेद की बात यही है कि वह कर्मों के विषय में सब कुछ जानते-समझते हुए भी कषायों से परे रहने का प्रयत्न नहीं करता तथा लोभ-लालच से नहीं बचता । धन को महान् अनिष्टकारी तथा कर्म - बन्धन का मूल कारण जानकर भी प्राणी उसी पर आसक्ति रखता हैं तथा उसे एकत्रित करने में अनेकानेक प्रगाढ़ कर्म बाँध लेता है । कवि का कथन है कि 'चेतनराज लोभ में पड़कर ज्ञानचन्द की सीख भी नहीं मानता और न कभी दयाचन्द और नेमचन्द को अपने यहाँ आमंत्रित करता है ।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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