Book Title: Anand Pravachan Part 06
Author(s): Anand Rushi, Kamla Jain
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 348
________________ ३३६ आनन्द प्रवचन | छठा भाग एक दोहे में कहा गया है सुसंगति से सुधरयो नहीं, जाका बड़ा अभाग । कुसंगति से बिगड़यो नहीं, उनका मोटा भाग ॥ जो व्यक्ति सत्संगति पाकर भी अपने आपको सुधार नहीं सकता वह बड़ा अभागा है और कुसंगति में रहकर भी जो बिगड़ता नहीं है वह भाग्यशाली कहलाता है । पंथकजी ऐसे ही भाग्यशाली साधक थे जो कुसंग में रहकर भी अपना दामन स्वच्छ बनाये रहे । वे अन्य गुरुभाइयों के विहार कर देने पर अपने गुरु को उनकी . इच्छानुसार आहार-जल ला देते थे तथा उनकी सेवा-शुश्रुषा करते थे। इधर चातुर्मास प्रारम्भ हो गया और धीरे-धीरे वह समाप्त भी होने आया। पंथक जी तो बराबर अपना नित्य-नियम एवं प्रतिक्रमणादि करते थे किन्तु शैलकऋषि खाने-पीने के लोलुपी बन जाने के कारण प्रमादावस्था में पड़े रहते थे । रसलोलुपता के कारण वे यह भी नहीं समझ पाए कि कब चातुर्मास प्रारम्भ हुआ और कब समाप्त हो गया। पर जब चातुर्मास समाप्त हुआ और पंथक जी ने प्रतिक्रमण करने के पश्चात क्षमापने के लिए गुरुजी के चरण स्पर्श किये तो वे जागे और क्रोध से आगबबूला होकर बोले- "कोन मृत्यु का आह्वान कर रहा है जिसने मेरे आराम में बाधा डाली ?" पंथक जी बहुत विनयपूर्वक बोले- "गुरुदेव ! मैं आपको तकलीफ देना नहीं चाहता था, किन्तु आज चातुर्मास की समाप्ति का दिन है, अतः क्षमायाचना करने के लिए ही मैंने आपके चरणों का स्पर्श किया है। फिर भी आपको कष्ट हुआ इसके लिए क्षमा करें।" शैलकराज ऋषि ने बहुत चकित होकर पूछा- क्या आज चौमासी है ?" "हाँ भगवन् !” पंथक जी ने पुनः बड़ी शांति से उत्तर दिया । यह सुनते ही शैलकऋषि को घोर पश्चात्ताप होने लगा और वे अत्यन्त दुखी होकर बोले-"अरे ! मैं कैसा प्रमादी और रस-लोलुपी बन गया ? कैसी मेरी कर्मगति है और कितनी भूल हुई मेरी ? सम्पूर्ण राज-पाट छोड़कर भी मैं जिह्वा के स्वाद में पड़कर संयम का भान ही भूल गया ।" इस प्रकार घोर पश्चात्ताप की अग्नि में अपनी आत्मा को शुद्ध करते हुए शैलकराज ऋषि ने अपनी भूलों के लिए कठिन प्रायश्चित्त लिया और सेवाभावी शिष्य पंथक के साथ शैलकनगर से विहार कर दिया। तो बन्धुओ, संयम का पालन और संवर की आराधना करना बड़ा कठिन है । इसी लिए भगवान 'सत्कार-पुरस्कार' परिषह को भी अनुकषाई, अल्प इच्छावाला तथा अलोलुपी बनकर जीतने का आदेश देते हैं । जो भव्य प्राणी ऐसा करता है वह निश्चय ही आत्म-कल्याण करने में समर्थ बन जाता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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